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________________ २४३ वर्धमानचरितम् अत्यद्भुतं विविधलक्षणलक्षिताङ्गं ज्ञानत्रयेण विमलेन विराजमानम् । बाल्यो चितैर्मणिमयाभरणैविभूष्य भक्त्यामरास्तमिति तुष्टुवुरिष्टसिद्धये ॥८४ श्रीवीर यद्यथ वचो रुचिरं न ते स्याद् भव्यात्मनां खलु कुतो भुवि तत्त्वबोधः । तेजो विना दिनकरस्य विभातकाले पद्मा विकासमुपयान्ति किमात्मनैव ॥८५ . अस्नेहसंयुतदशो जगदेकदीपश्चिन्तामणिः कठिनतारहितान्तरात्मा । अव्यालवृत्ति सहितो हरिचन्दनागस्तेजोनिधिस्त्वमसि नाथ निराकृतोष्मा ॥८६ क्षीरोदफेनपटलावलिजालगौरं स्थित्वा नभस्यमृतरश्मिपदेन हृद्यम् । व्याप्तं मया कियदनाप्तमिदं क्षणेन निध्यायतीव जगदीश 'जगद्यशस्ते ॥८७ स्तुत्वा तमित्यथ सुराः पुनराशु निन्युर्मे रोस्ततः कुसुमभूषितसन्नमेरोः । सौधाग्रबद्धकदलीध्वजरुद्धयमानं यानावतारसमयान्नगरं तदिद्धम् ॥८८ पित्रोः सुतापगमजा भवतोरथातिर्माभूदिति प्रतिकृति तनयस्य कृत्वा । नीत्वामराद्रिमभिषिच्य भवत्सुतोऽयमानीत इत्यभिनिवेद्य ददुः सुरास्तम् ॥८९ नम्रीभूत इन्द्र ने 'वीर' यह नाम रखकर उनके आगे अप्सराओं के साथ अत्यन्त सुन्दर नृत्य किया । नृत्य करते समय इन्द्र देव और धरणेन्द्रों के नयन युगल को सफल कर रहा था तथा उसका वह नृत्य साक्षात् समस्त रसों को प्रकट करने वाला था || ८३ ॥ जो अत्यन्त आश्चर्य उत्पन्न कर रहे थे, जिनका शरीर नाना लक्षणों से सहित था तथा जो निर्मल तीन ज्ञानों से सुशोभित थे ऐसे जिन बालक को बाल्य अवस्था के योग्य मणिमय आभूषणों से विभूषित कर देव लोग भक्ति पूर्वक इष्ट सिद्धि के लिये उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥८४॥ हे वीर जिनेन्द्र ! यदि आपके मनोहर वचन न होते तो निश्चय से पृथिवी पर भव्य जीवों को तत्त्व ज्ञान कैसे होता ? प्रभात काल में सूर्य के तेज के बिना कमल क्या अपने आप ही विकास को प्राप्त होते हैं ? अर्थात् नहीं ॥ ८५ ॥ हे नाथ ! आप जगत् के अद्वितीय दीपक हैं परन्तु उसकी दशाबत्ती तेल से सहित नहीं हैं ( पक्ष में राग से रहित वीतराग दशा-अवस्था से सहित हैं ) | आप चिन्तामणि हैं परन्तु आपको अन्तरात्मा कठिनता से रहित है ( पक्ष में आपकी आत्मा निर्दयता से रहित है ) आप हरि चन्दन के वृक्ष हैं परन्तु साँपों के सद्भाव से सहित नहीं है ( पक्ष में दयालु चेष्टा से सहित हैं ) आप तेज के निधि हैं परन्तु ऊष्मा - गरमी को नष्ट करने वाले हैं ( पक्ष में गर्व को दूर करने वाले हैं ॥ ८६ ॥ हे जगलते ! क्षीर समुद्र के फेन पटलों की पंक्तियों के समान सफेद आपका मनोहर यश चन्द्रमा के छल से आकाश में स्थित होकर क्षण भर के लिये मानों यह देख रहा है कि मैंने कितना जगत् व्याप्त किया है और कितना व्याप्त नहीं किया है ? ॥ ८७ ॥ तदनन्तर देव लोग इस प्रकार उनकी स्तुति कर उन्हें फूलों से विभूषित नमेरु वृक्षों से युक्त उस सुमेरु पर्वत से पुनः शीघ्र ही उस नगर को ले गये जो महलों के अग्रभाग में बँधी हुई कदली sarओं से व्याप्त था तथा विमानों के अवतार समय से देदीप्यमान था ।। ८८ ।। आप दोनों माता पिताओं को पुत्र के वियोग से उत्पन्न पीड़ा न हो इस विचार से पुत्र का प्रतिबिम्ब बनाकर हम १. जगद्यतस्ते म० । २. भवस्तुतोऽय म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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