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________________ पञ्चदशः सर्गः पृथ्वी अपायविचयोऽथवा निगदितो जिनैः कर्मणा पायविधिचित्तनं नियतमात्मनः संततम् । अपेयुरहितादिमे कथमनादिमिथ्यात्वतः शरीरिण इतीरिता स्मरणसन्ततिश्चापरा ॥१४६ शार्दूलविक्रीडितम् यज्ज्ञानावरणादिकर्मसमितेर्द्रव्यादिकप्रत्यय ' - प्रोद्यच्चित्रफलोच्चयानुभवनं प्रत्येकसंचिन्तनम् । सम्यक्तन्नितरां विपाकविचयो लोकस्य संस्थाविधे यत्संस्थाविचयो निरूपणमिति स्यादप्रमत्ताच्च तत् ॥ १४७ उपजातिः चतुर्विकल्पं निगदन्ति शुक्लध्यानं जिना ध्यानविभिन्नमोहाः । आद्ये सदा पूर्वविदो भवेतां परे परं केवलिनः प्रणीते ॥ १४८ प्रोक्तस्त्रियोगस्य जिनैः पृथक्त्ववितर्क आद्यः स इति प्रणीतम् । fatafaएक योगस्य च ध्यानमनूनबोधैः ॥ १४९ सूक्ष्मक्रियासु प्रतिपातितेन सूक्ष्मक्रियादिप्रतिपातिनामा । तत्काययोगस्य वदन्ति शुक्लं तृतीयमालोकितविश्वलोकाः ॥ १५० २०७ है ।। १४५ ।। अथवा आत्मा से कर्मों के छूटने की विधि का निरन्तर नियत रूप से चिन्तन करना अर्थात् आत्मा से कर्मों का सम्बन्ध किस प्रकार छूटे ऐसा चिन्तन करना भी जिनेन्द्र भगवान् ने अपाय विचय ध्यान कहा है अथवा ये प्राणी अहितकारी अनादि मिथ्यात्व से कैसे छूटें इस प्रकार की जो दूसरी विचार श्रेणी है वह भी अपायविचय नाम का धर्म्यध्यान है ॥ १४६ ॥ ज्ञानावरणादि कर्म समूह के द्रव्यादि कारणों से उदय में आने वाला विचित्र फल का जो अनुभवन है वह विपाक कहलाता है । इस संदर्भ में प्रत्येक कर्मों के विपाक का जो अच्छी तरह विचार किया जाता है वह विपाकविचय नाम का धर्म्यध्यान है और लोक की आकृति का जो निरूपण है वह संस्थानविचय धर्म्यध्यान है | यह धर्म्यध्यान अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान तक होता है ॥ १४७ ॥ ध्यान के द्वारा मोह को नष्ट करने वाले जिनेन्द्र भगवान् शुक्ल ध्यान को चार भेदों से युक्त कहते हैं । उन चार भेदों में प्रारम्भ के भेद पूर्वविद् - पूर्वो के ज्ञाता मुनि के होते हैं और शेष दो भेद केवली के कहे गये हैं ।। १४८ || जो शुक्ल ध्यान कहा है वह पृथक्त्ववितर्क विचार नामका पहला शुक्ल ध्यान है और तीन योगों में से किसी एक योग के धारक के जो शुक्ल ध्यान होता है वह एकत्व वितर्क नामका दूसरा शुक्ल ध्यान है ऐसा पूर्णज्ञान के धारक सर्वज्ञ देव ने कहा है ।। १४९ ॥ काययोग को सूक्ष्म क्रियाओं के काल में जो होता है वह सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामका तृतीय शुक्ल १. द्रव्यादिकं प्रत्ययः म० । २. त्रिवर्गस्य म० । ३. प्रतिपादितेन म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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