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________________ २०६ वर्धमानचरितम् उपजातिः हिंसा नृतस्तेयपरिग्रहैकसंरक्षणेभ्यः खलु रौद्रमुक्तम् । तस्य प्रयोक्ताविरतो निकामं स्यात्संयतासंयतलक्षणश्च ॥१४३ शार्दूलविक्रीडितम् आज्ञापायविपाकसंस्थितिभवं धर्म्यं चतुर्धा मतं यः सम्यग्विचयाय तत्स्मृतिसमन्वाहार आपादितः । भावानामतिसौक्ष्म्यतो जडतया कर्मोदयादात्मनः स्तत्राज्ञाविचयो यथागमगतं द्रव्यादिसंचिन्तनम् ॥१४४ मिथ्यात्वेन सदा विमूढमनसो जात्यन्धवत्प्राणिनः सर्वज्ञोक्तमताच्चिराय विमुखा मोक्षार्थिनोऽज्ञानिनः । सन्मार्गादवबोधनादभिमताद्दरं प्रयान्तीति यन् मार्गापायविचिन्तनं तदुदितं धर्म्यं द्वितीयं बुधैः ॥ १४५ है॥ १४२ ॥ हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह के अत्यधिक संरक्षण से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान कहा गया है । इस रौद्रध्यान का अत्यधिक प्रयोग करने वाला, अविरत अर्थात् प्रारम्भ से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक का जीव, तथा संयतासंयत नामक पञ्चम गुण स्थानवर्ती जीव होता है । भावार्थ- 'रुद्रस्येदं रौद्रं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार रुद्र जीव का ध्यान रौद्र ध्यान कहलाता है । हिंसा असत्य चोरी और परिग्रह के संरक्षण में अत्यन्त आसक्त रहने वाला प्राणी रुद्र कहलाता है उसका जो ध्यान है वह रौद्र ध्यान कहलाता है कारणों की अपेक्षा रौद्र ध्यान के भी हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी इस प्रकार चार भेद होते हैं । यह रौद्र ध्यान अविरत अर्थात् प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में रहने वाले जीव के अत्यधिक मात्रा में होता है और पञ्चम गुणस्थानवर्ती संयतासंयत के साधारण मात्रा में होता है ॥ १४३ ॥ आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान से होने वाला ध्यान धर्म्यध्यान माना गया है। वह ध्यान आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के भेद से चार प्रकार का है । सम्यग् रूप से पदार्थ का विचार करने के लिये जो मन का व्यापार होता है वह स्मृति समन्वाहार कहलाता है । पदार्थों की अत्यन्त सूक्ष्मता और कर्मोदय से होने वाली अपनी अज्ञानता के कारण जहाँ आगम की आज्ञानुसार द्रव्य आदि का चिन्तन होता है वहाँ आज्ञा विचय नाम का धर्म्यध्यान होता है ।। १४४ ॥ मिथ्यात्व के द्वारा जिनका मन सदा मूढ रहता है ऐसे अज्ञानी प्राणी मोक्ष के इच्छुक होकर भी जन्मान्ध के समान सर्वज्ञ कथित मार्ग से चिर काल से विमुख हैं तथा सम्यग्ज्ञान रूपी अपने इष्ट समीचीन मार्ग से दूर जा रहे हैं इस प्रकार मार्ग के अपाय का जो चिन्तन है वह विद्वानों द्वारा अपायविचय नाम का दूसरा धर्म्यध्यान कहा गया १. मार्गे पाय - म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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