SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ वर्धमानचरितम् वसन्ततिलकम् ग्रीष्मातपस्थितिघनागमवृक्षमूलवासाभ्रवासविविधप्रतिमादिकं तत् । षष्ठं तपः परमवेहि नरेन्द्र कायक्लेशाभिधानमिदमेव तपःसु मुख्यम् ॥१३६ हरिणी अथ दशविधं [ नवविधं ] प्रायश्चित्तं प्रमादभवागसां प्रतिनियमितं सर्वज्ञाज्ञाप्रणीतविधानतः । प्रवयसि जने प्रव्रज्याद्यैः स यः परमादरो भवति विनयो मूलं मुक्तेः सुखस्य चतुविधः ॥१३७ निजतनुवचः साधुद्रव्यान्तरैर्यदुपासनं ननु दशविधं वैयावृत्यं यथागममीरितम् । अविरतमथ ज्ञानाभ्यासो मनःस्थितिशुद्धये शमसुखमयः स्वाध्यायोऽसौ दशार्धविधो मतः ॥ १३८ है उसे मुनि का पञ्चम समीचीन विविक्त शय्यासन तप मानते हैं ।। १३५ ॥ हे नरेन्द्र ! ग्रीष्म ऋतु में आप स्थिति - घाम में बैठकर आतापन योग धारण करना, वर्षा ऋतु में वृक्ष मूल वास - वृक्ष के नीचे बैठकर वर्षा योग धारण करना, शीत ऋतु में अभ्रवास — खुले आकाश के नीचे बैठना तथा नाना प्रकार के प्रतिमादि योग धारण करना इसे छठवां कायक्लेश नामका उत्कृष्ट तप जानो । यही तप सब तपों में मुख्य है ।॥ १३६ ॥ । अब आगे छह अन्तरङ्ग तपों का वर्णन करते हैं । प्रमाद से होने वाले अपराधों का सर्वज्ञ की आज्ञा द्वारा प्रणीत विधि के अनुसार निराकरण करना नव प्रकार का प्रायश्चित्त है । दीक्षा आदि के द्वारा वृद्धजनों में जो परम आदर प्रकट किया जाता है वह विनय तप है । यह विनय तप मुक्ति सुख का मूल कारण है। इसके चार भेद हैं भावार्थ - अपराध होने पर शास्त्रोक्त विधि से उसकी शुद्धि करने को प्रायश्चित्त तप कहते हैं इसके आलोचना प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ये नौ भेद हैं । जो मुनि दीक्षा तथा ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा वृद्धसंज्ञा को प्राप्त हैं उनका आदर करना विनय तप है इसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उपचार ये चार भेद हैं ।। १३७ || अपना शरीर, वचन तथा अन्य श्रेष्ठ द्रव्यों के द्वारा आगम के अनुसार दश प्रकार के मुनियों की जो उपासना की जाती है वह दश प्रकार का वैयावृत्य तप कहा गया है । मन की स्थिरता और शुद्धि के लिये जो निरन्तर ज्ञान का अभ्यास किया जाता है वह स्वाध्याय तप है । यह स्वाध्याय शान्ति सुख से तन्मय है तथा पांच प्रकार का माना गया है । भावार्थ - व्यावृत्ति - दुःख निवृत्ति जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्त्य कहते हैं । आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, सङ्घ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियों की सेवा की जाती है इसलिये विषय भेद की अपेक्षा वैयावृत्त्य तप के दश भेद होते हैं । शास्त्र के माध्यम से आत्म स्वरूप का अध्ययन करना स्वाध्याय है इसके वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy