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________________ पञ्चदशः सर्गः उपजातिः प्रजागरायोद्धतदोषशान्त्यै संवाहनार्थं च सुसंयमस्य । स्वाध्याय संतोषनिमित्तमुक्तं सदावमोदर्यमुदारबोधैः ॥१३२ सम् २०३ . संकल्प एकभवनादिकगोचरो यश्चित्तावरोधनमवेहि तपस्तृतीयम् । तृष्णा रजः शमनवारिनिरत्ययाया लक्ष्म्यास्तदेव हि वशीकरणैकमन्त्रम् ॥१३३ दुष्टेन्द्रियाश्वगणदर्पविनिग्रहार्थं निद्राप्रमादविजयाय तपश्चतुर्थम् । स्वाध्याययोगसुखसिद्धिनिमित्तमुक्तं त्यागो घृतप्रमुखवृष्यरसस्य' यस्तत् ॥१३४ उपजातिः यथागमं शून्यगृहादिकेषु विविक्तशय्यासनमामनन्ति । स्वाध्याय देवव्रत योगसिद्धयै मुनेस्तपः पञ्चममञ्चितं तत् ॥ १३५ के आहारों का त्याग करना अनशन या उपवास तप कहलाता है इस तप के लौकिक प्रयोजन की ओर लक्ष्य न रखकर रागादि शत्रुओं को शान्त करने रूप पारमार्थिक प्रयोजन की ओर लक्ष्य रखना चाहिये। इस अनशन तप से मन वश में हो जाता है ॥ १३१ ॥ उत्कृष्ट ज्ञानी आचार्यों ने अत्यधिक जागरण के लिये, तीव्र दोषों की शान्ति के लिये, सम्यक् संयम की साधना के लिये तथा स्वाध्याय और सन्तोष की प्राप्ति के लिये सदा अवमोदर्यं तप करने का उपदेश दिया है । भावार्थअपने निश्चित आहार से कम आहार लेने को अवमौदर्यं तप कहते हैं । इसके कवल चान्द्रायण आदि अनेक भेद हैं ।। १३२ ।। आज मैं एक मकान तक, दो मकान अथवा तीन आदि मकान तक आहार के लिये जाऊँगा, इस प्रकार का जो संकल्प किया जाता है उसे तृतीय वैयावृत्य तप जानो । यह तप चित्त को रोकने वाला है, तृष्णा रूपी धूलि को शान्त करने के लिये जल स्वरूप है तथा अविनाशी मोक्ष लक्ष्मी को वश करने के लिये वशीकरण मन्त्र है । भावार्थ - वृत्ति का अर्थ भोजन और परिसंख्यान का अर्थ नियम है । अपने निवास स्थान से भोजन के लिये निकलते समय नाना प्रकार के नियम ग्रहण करना वृत्ति परिसंख्यात तप कहलाता है इस तप के प्रभाव से चित्त की स्वच्छन्दता का निरोध होता है और आहार विषयक तृष्णा शान्त होती है ॥ १३३ ॥ इन्द्रिय रूपो दुष्ट अश्व समूह का गर्व नष्ट करने के लिये, निद्रा और प्रमाद पर विजय प्राप्त करने के लिये तथा स्वाध्याय और योग का सुख पूर्वक सिद्धि के लिये श्री घृतादिक गरिष्ठ रसों का त्याग होता है वह रस परित्याग नामका चतुर्थ तप कहा गया है ॥ १३४ ॥ स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य तथा ध्यान की सिद्धि के लिये आगम के अनुसार शून्य गृह आदि स्थानों में जो एकान्त शयनासन किया जाता १. वृक्षरसस्य म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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