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वर्धमानचरितम्
असत्यवादित्वरतिं च नित्यं परातिसन्धानपरत्वमेकम् । प्रवद्धरागादिमपोरयन्ति स्त्रीवेदनीयास्रवहेतुमार्याः॥३८ अगर्वता स्तोककषायता च स्वदारसंतोषगुणादिरीशैः। सतां परिज्ञातसमस्ततत्त्वैः पुंवेदनीयात्रवहेतुरक्तः ॥३९ सदा कषायाधिकता परेषां गुह्येन्द्रियाणां व्यपरोपणञ्च । प्राहुः परस्त्रीगमनादिकञ्च तृतीयवेद्यास्रवहेतुमार्याः ॥४०
शार्दूलविक्रीडितम् बह्वारम्भपरिग्रहत्वमसमं हिंसाक्रियोत्पादनं
रौद्रध्यानमृतिः परस्वहरणं कृष्णा च लेश्या परा। गार्धक्यं विषयेषु तीव्रमुदितः स्यान्नारकस्यायुषः
सार्वैरानवहेतुरित्यविलज्ञानेक्षणैः प्राणिनाम् ॥४१ मायाथास्रवहेतुरित्यभिहिता तिर्यग्गतेरायुष
स्तभेदाः परवञ्चनाय पटुता निःशीलता केवलम् । मिथ्यात्वाहितधर्मदेशनरतिनिं तथात मृतौ
लेश्ये द्वे विदुषां वरैस्तनुमतां नीला च कापोतको ॥४२ अल्पारम्भपरिग्रहत्वमुदितं मायुषः कारणं
तव्यासोऽल्पकषायता च मरणेऽसंक्लेशतादिः परम् । भद्रत्वं प्रगुणक्रियाव्यवहृतिः स्वाभाविकः प्रश्रयः
स्यादन्यापि परा स्वभावमृदुता शीलवतैरुन्नता ॥४३ विधि में ग्लानि करना तथा दूसरे को निन्दा करने में तत्पर रहना, आदि जुगुप्सा वेदनीय के आस्रव हैं ऐसा आस्रव के दोष से रहित मुनिराज कहते हैं ॥ ३७॥ निरन्तर असत्य बोलने में प्रीति रखना, दूसरे को ठगने में प्रमुख रूप से तत्पर रहना तथा रागादि की अत्यधिक वृद्धि होना, इन सबको आर्यपुरुष स्त्रीवेदनीय कर्म का आस्रव कहते हैं ।। ३८ । समस्त तत्त्वों के जानने वाले अर्हन्त भगवान् ने सत्पुरुषों के लिये, गवं नहीं करना, अल्प कषाय का होना तथा स्वस्त्री में संतोष रखना आदि गुणों को पुवेदनीय के आस्रव का हेतु कहा है ॥ ३९ ॥ सदा कषाय की अधिकता होना, दसरों की गुह्य इन्द्रियों का छेदन करना तथा परस्त्रो गमनादि करना इन सब को आर्य पुरुष नपुसक वेद का आस्रव कहते हैं ॥ ४० ॥
बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह का होना, उपमारहित हिंसा के कार्यों को उत्पन्न करना, रौद्रध्यान से मरण होना, दूसरे का धन हरण करना, तीव्र कृष्ण लेश्या का होना और विषयों में तीव्र आसक्ति रखना इन सब को पूर्णज्ञान रूपी नेत्रों के धारक सर्वज्ञ भगवान् ने प्रणियों के लिये नरकायु के आस्रव का हेतु कहा है ।। ४१ ।। श्रेष्ठ विद्वानों ने प्राणियों के लिये माया को तिर्यञ्च आयु के आस्रव का हेतु कहा है । उस माया के भेद इस प्रकार हैं-दूसरों को ठगने के लिये चतुराई का होना, शील का अभाव होना, मिथ्यात्वपूर्ण धर्म के उपदेश में प्रोति रखना, मृत्यु के समय आर्तध्यान का होना तथा नोल और कापोत इन दो लेश्याओं का होना ॥ ४२ ॥ थोड़ा आरम्भ