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________________ पञ्चदशः सर्गः १८१ दीनातिहासो बहुविप्रलापः प्रहासशीलत्वमुशन्ति नित्यम् । धर्मोपहासादिकमप्युदाराः सुहास्यवेद्यास्रवकारिणानि ॥३२ क्रीडासु चित्रासु च तत्परत्वं शीलेष्वरुच्यादिरपि व्रतेषु । उशन्ति सन्तो रतिवेदनीयास्रवस्य हेतुं तनुभूषणानाम् ॥३३ द्रुतविलम्बितम् रतिविनाशनमन्यजनारतिप्रकटनादिकमाहुरनिन्दिताः । अरतिवेद्यघनास्रवकारणं दुरितशीलजनैः सह सङ्गतिम् ॥३४ उपजातिः यो मूकभावो घनमात्म'शोकात् परस्य शोकास्तुति निन्दनादिः । स शोकवेद्यास्रवकारणं स्यादित्याहुरार्या विदिताखिलार्थाः ॥३५ मालिनी अथ भयपरिणामः स्वस्य चान्यस्य नित्यं भयविसरविधायी भीतिवेद्यास्रवस्य । भवति खलु निमित्तं कारणस्यानुरूपं जगति ननु कथञ्चिद् दृश्यते कार्यमार्यैः ॥३६ उपजातिः साधुक्रियाचारविधौ जुगुप्सा परापवादोद्यतशीलतादिः । निमित्तमायंतयो जगप्सावेद्यास्रवस्यास्रवदोषहीनाः॥३७ के आस्रव का कारण है ।। ३१ ।। दीन मनुष्यों की हंसी करना, बहुत बकवास करना, निरन्तर हास्य करने का स्वभाव पड़ना, तथा धर्म का उपहास आदि करना, इन सब को उत्तम पुरुष हास्य वेदनीय के आस्रव का कारण कहते हैं ॥ ३२॥ नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में तत्पर रहना तथा शील और व्रतों में अरुचि आदि का करना, इन सब को सत्पुरुष, प्राणियों के रति वेदनीय कर्म के आस्रव का हेतु कहते हैं ।। ३३ ॥ रति-प्रोति को नष्ट करना, अन्य मनुष्यों को अरति उत्पन्न करना तथा पापी जनों के साथ संगति करना, इन सब को प्रशस्त पुरुष अरति वेदनीय कर्म के तीव्र आस्रव का कारण कहते हैं ॥ ३४ ॥ अपने आपके शोक से जो अत्यधिक मूक रहना-किसी से बात भी नहीं करना, दूसरे को शोक उत्पन्न करना, उसकी प्रशंसा नहीं करना तथा निन्दा आदि करना है वह शोक वेदनीय के आस्रव का कारण है ऐसा समस्त पदार्थों को जानने वाले आर्य पुरुष कहते हैं ॥ ३५ ॥ अपने आप को निरन्तर भयभीत रखना तथा दूसरे को भय उत्पन्न करना, भय वेदनीय के आस्रव का निमित्त है सो ठीक ही है क्योंकि अगत् में निश्चय से आर्य पुरुष कथंचित् कारण के अनुरूप कार्य को देखते हैं ॥ ३६ ॥ साधुओं की क्रिया और आचार की १. धनमात्याशोक; म० । २. शोकश्रुति म० शोकस्तुति ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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