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________________ १४० वर्धमानचरितम् खरतरपवनाभिघातरूक्षं रविकिरणोल्मुकतापतः समन्तात् । स्फुटितमपि वपुर्व्यथां न चक्रे मनसि हरेः खलु तादृशो हि धीरः ॥५५ दवनिभमुखदंशमक्षिकौघैर्मशकचयैरपि मर्मसु प्रदष्टः । समभृत शमसंवरानुरागं द्विगुणतरं मनसा व्यपेतकम्पः ॥५६ मृतमृगपतिशङ्कया मदान्धैः करिपतिभिः प्रविलुप्तकेशरोऽपि । अकृत स हृदये परां तितिक्षां तदवगतेननु सत्फलं मुमुक्षोः ॥५७ क्षणमपि विवशस्तृषा क्षुधा वा द्विरवरिपुर्न बभूव मुक्तदेहः । 'धृतिकवचितधोरमानसस्य प्रशमरतिर्न सुधायते किमेका ॥५८ प्रतिदिवसमगात्तनुत्वमङ्गैः सह बहिरन्तरवस्थितैः कषायैः । हृदि निहितजिनेन्द्रभक्तिभारादिव नितरां शिथिलीकृतप्रमादः ॥५९ रजनिषु हिममारुतो बबाधे शमविवरोदरवतिनं न चण्डः । निरुपमघनसंवरस्य शीतं न हि विदधाति तनीयसी च पीडाम् ॥६० खरनखदशनैः शिवाशृगालैर्मृतकधिया परिभक्षितो निशासु। क्षणमपि न जहौ परं समाधि न हि विधुरे परिमुह्यते क्षमावान् ॥६१ वट से अपना शरीर रख छोड़ा था ऐसा वह सिंह दण्ड के समान चलायमान नहीं होता था। वह प्रत्येक समय मनिराज के गुण समूह की भावना में लीन रहता था, क्षण-क्षण में उसको लेश्याए विशुद्ध होती जाती थीं ॥ ५४ ॥ उसका शरीर यद्यपि तीक्ष्ण वायु के आघात से रूक्ष हो गया था और सूर्य की किरण रूप उल्मुक के ताप से सब ओर फट गया था तो भी सिंह के मन में पीड़ा उत्पन्न नहीं कर रहा था सो ठोक ही है क्योंकि सचमुच धीर प्राणी वैसे ही होते हैं ॥ ५५ ॥ दावानल के समान मुख वाले डांस और मक्खियों के समूह तथा मच्छरों के निचय यद्यपि उसे मर्म स्थानों में काटते थे तो भी वह मन से निर्भय रहता हुआ प्रशम और संवर में दूना अनुराग धारण करता था ।। ५६ ॥ 'यह मरा हुआ सिंह है' इस शंका से मदान्ध हाथी यद्यपि उसके गर्दन के बालों को खींचते थे तो भी वह हृदय में उत्कृष्ट क्षमा को धारण करता था सो ठीक ही है क्योंकि मोक्षाभिलाषी जीव के सम्यग्ज्ञान का यही वास्तविक फल है ॥ ५७ ॥ शरीर से स्नेह का त्याग करने वाला वह सिंह क्षणभर के लिये भी भूख और प्यास से विवश नहीं हुआ था सो ठीक ही है क्योंकि जिसका धीर मन धैर्यरूपी कवच से युक्त है उसके लिये क्या एक प्रशमगुण की प्रीति ही अमृत के समान आचरण नहीं करती है ? ॥ ५८ ॥ हृदय में स्थित जिनेन्द्र भक्ति के भार से ही मानो जिसका प्रमाद अत्यन्त शिथिल हो गया था ऐसा वह सिंह, भीतर स्थित रहने वाली कषायों के साथ बाहर शरीर से प्रतिदिन कृशता को प्राप्त होता जाता था। भावार्थ-उसके कषाय और शरीर दोनों ही प्रतिदिन क्षीण होते जाते थे ॥ ५९ ।। शान्ति रूपी गुहा के भीतर रहने वाले उस सिंह को रात्रि के समय अत्यन्त तीक्ष्ण ठण्डी वायु पोडित नहीं करती थो सो ठीक ही है क्योंकि अनुपम और सान्द्र ओढनी से सहित मनुष्य को ठण्ड थोड़ा भी कष्ट नहीं पहुँचाती है ॥ ६० ॥ रात्रियों में पैने नख और दांतों वाले शृगाली और शृगाल उसे मृत समझ यद्यपि १. घृत म० । २. विधुरेऽपि विमुह्यति म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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