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________________ एकादशः सर्गः त्रिकरण विधिना स्वपापयोगं सकलमपोह्य मृगेन्द्र यावदायुः । अनशनमुपलब्धबोधिलाभो विमल समाधिसमाप्तये विधत्स्व ॥४७ गतभय दशमे भवाद्भवेऽस्मात्त्वमिह भविष्यसि भारते जिनेन्द्रः । इति परिकथितं जिनेशिना नः सकलमिदं कमलाधरेण नाम्ना ॥४८ शमरत वयमागता भवन्तं खलु परिबोधयितुं तदीयवाक्यात् । ननु मुनिहृदयं सुनिःस्पृहं च स्पृहयति भव्यजनप्रबोधनाय ॥४९ इति चिरमनुशिष्य तत्त्वमागं मुनिरुद्गाद्गमनाय निश्चितार्थम् । स्वचरणविनतं स्पृशन्कराग्रैः शिरसि मुहुर्मुहुरादरेण सिंहम् ॥५० चिरमिभरिपुणा निरीक्ष्यमाणौ प्रणयभवाश्रुकणाविलेक्षणेन । जलधरपदवों समाश्रयेतां प्रतिपदवीं गमनाय चारणौ तौ ॥५१ अथ मुनियुगले व्यतीत्य तस्मिन्पवनरयेण गते स्वदृष्टिमार्गम् । भृशमरतिमियाय राजसिंहो जनयति सद्विरहो न कस्य वाधिम् ॥५२ मुनिविरहचा समं स्वचित्तादनतिचिरेण निरस्य सर्वसङ्गम् । तदमलचरणाङ्कपावनायामनशनमास्त मृगाधिपः शिलायाम् ॥५३ 'विनिहितवपुरेकपार्श्व वृत्त्या दृषदि चचाल न दण्डवन्मृगेन्द्रः । तिगुणगणभावनासु सक्तः प्रतिसमयं च बभूव शुद्धलेश्यः ॥५४ १३९ आयु की स्थिति मात्र एक माह की रह गई है यह समझ लो ||४६|| हे मृगेन्द्र ! तुम्हें बोधि-आत्मज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है इसलिये मन वचन काय की विधि से अपने समस्त पाप योग को दूर कर जब तक आयु है तब तक निर्मल समाधि प्राप्ति के लिये अनशन तप करो। भावार्थ - जीवन पर्यन्त के लिये उपवास करो इसी से तुम्हारा समाधिमरण निर्दोष हो सकेगा ॥ ४७ ॥ हे निर्भय ! इस भव से दशवें भव में तुम इसी भरत क्षेत्र में तीर्थंकर होओगे । यह सब समाचार कमलाधर नामक तीर्थंकर ने हम सब से कहा है ॥ ४८ ॥ हे शमरत ! निश्चय से हम लोग उन्हीं तीर्थंकर के कहने से आपको सम्बोधने के लिये आये हैं सो ठीक ही है क्योंकि मुनियों का हृदय यद्यपि अत्यन्त निःस्पृह रहता है तो भी वह भव्यजनों के संबोधने की इच्छा रखता है ॥ ४९ ॥ जो अपने चरणों में नीभूत सिंह का उसके शिर पर आदर पूर्वक बार-बार हाथ फेरते हुए स्पर्श कर रहे थे ऐसे वे मुनि उसके लिये निर्णीत तत्त्वमार्ग का उपदेश देकर आकाश मार्ग से चले गये ॥ ५० ॥ सिंह, स्नेह से उत्पन्न आंसुओं के कण से मलिन नेत्र के द्वारा जिन्हें चिरकाल तक देखता रहा ऐसे वे दोनों चारण ऋद्धिधारी मुनिराज अपने इष्ट स्थान पर जाने के लिये आकाश में चले गये ॥ ५१ ॥ तदनन्तर जब दोनों मुनिराज अपने दृष्टि मार्ग को उलँघ कर पवन के समान तीव्र वेग से चले गये तब वह सिंह अत्यधिक दुःख को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुषों का वियोग किसे मानसिक पीड़ा उत्पन्न नहीं करता है ? ॥ ५२ ॥ किन्तु शीघ्र ही वह सिंह मुनि वियोग से होने वाले शोक के साथ समस्त परिग्रह को अपने मन से दूर हटाकर उन मुनिराज के चरण चिह्न से पवित्र शिला पर उपवास का नियम लेकर बैठ गया ॥ ५३ ॥ जिसने उस शिला पर एक कर१. निहितवपु म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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