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नवमः सर्गः
११३ परिच्युतैस्तन्मुकुटादनेकैर्मुक्ताफलैराजिधरा रराज । कीर्णेव विद्याधरराजलक्ष्या बाष्पाम्बुविन्दुप्रकरैः क्षणार्द्धम् ॥७७ बलद्वयं वीक्ष्य तयोरचिन्त्यं बलं च धैर्य युधि कौशलं च । कश्चानयोर्जेष्यति नेमि ताम्पत्संदेहदोलां मनसारुरोह ॥७८ प्रादुर्बभूव स्वसमानसत्त्वे बलस्य तत्रैव बलं च शौर्यम् । विजेतुरप्यन्यनभश्चराणां प्रतिद्विपे धीर इवेभभर्तुः ॥७९ असाध्यमन्यस्य बलेन युद्धे हलायुधो नीलरथं हलेन । निनाय तं गोचरमाशु मृत्योर्मत्तद्विपं क्रुद्ध इव द्विपारिः॥८० इति प्रधानान्प्रहतानथान्यैर्नभश्चरान्वीक्ष्य तुरङ्गकण्ठः । करेण सारं धनुराललम्बे वामेन शौयं मनसा च धीरः ॥८१ विहाय सर्वानितरान्बलादीन क्व स क्व स प्राज्यबलस्त्रि टः। पृच्छन्निति प्राक्तनजन्मकोपात्तस्थौ पुरस्तस्य गजाधिरूढः ॥८२ अमानवाकारमुदीक्ष्य लक्ष्म्या योग्यो ममायं रिपुरेव नान्यः ।
अमन्यतेत्यश्वगलस्त्रिपृष्टं गुणाधिके कस्य न पक्षपातः ॥८३ गिरा दिया जिस प्रकार कि वज्र के द्वारा मेघ, पर्वत की शिखर को गिरा देता है । ७६ ॥ उसके मुकुट से चारों ओर गिरे हुए अनेक मोतियों से व्याप्त युद्ध की भूमि ऐसो सुशोभित हो रही थी मानों विद्याधर राजलक्ष्मी के अश्रुन्बिदुओं के समूह से ही आधे क्षण के लिये व्याप्त हो गई हो ॥ ७७ ॥ दोनों ओर की सेनाएँ उन दोनों के अचिन्त्य बल, धैर्य और युद्ध के कौशल को देखकर इन दोनों में कोई जीतेगा या नहीं इस प्रकार दुःखी होती हुई सन्देहरूपी झूला पर मन से आरूढ़ हई थी॥७८ ।। बलभद्र विजय यद्यपि अन्य अनेक विद्याधरों को जीत चुके थे तो भी उनका बल और शौर्य अपने समान पराक्रम वाले उसी नीलरथ पर उस प्रकार प्रकट हुआ था जिस प्रकार कि किसी गजराज का बल और शौर्य अपने ही समान पराक्रम वाले किसी धैर्यशाली प्रतिद्वन्द्वी गज पर प्रकट होता है । ७९ ।। युद्ध में दूसरे की सेना से असाध्य नीलरथ को बलभद्र ने हलरत्न के द्वारा शीघ्र ही उस प्रकार मृत्यु की गोचरता को प्राप्त करा दिया जिस प्रकार कि क्रुद्ध सिंह किसी मदमाते हाथी को करा देता है।। ८० ॥ तदनन्तर इस प्रकार अन्य लोगों के द्वारा प्रधान विद्याधरों को मरा देख धीर वीर अश्वग्रीव ने बायें हाथ से सुदृढ़ धनुष और मनसे शौर्य का आलम्बन लिया अर्थात् बायें हाथ से धनुष उठाकर हृदय में शूरता का भाव धारण किया ॥८१॥ हाथी पर चढ़ा हुआ अश्वग्रीव बलभद्र आदि अन्य सब योद्धाओं को छोड़ कर यह 'प्रकृष्ट बलवान् त्रिपृष्ट कहाँ है ? कहाँ है ?' इस प्रकार पूछता हुआ पूर्वजन्म-सम्बन्धी क्रोध से उसके आगे खड़ा हो गया ॥८२।। लोकोत्तर आकार के धारक त्रिपृष्ठ को देखर अश्वग्रीव ने माना कि मेरी लक्ष्मी के योग्य यही शत्रु है दूसरा १. तदीयमुकुटोद्वतैरमितमौक्तिक: पातित
रराज समराजिरं पतित भूमिभृन्मस्तकम् कलिङ्गवसुधापतिप्रथितराजलक्ष्म्यास्तदा
विकीर्णमिव विस्तुतनयनवाष्पबिन्दूत्करैः ॥७६।। २. ताम्यन् म० । ३. स्वसाध्य म० ।