________________
१११२
वर्धमानचरितम् तस्यार्ककीर्तेर्धनुषोऽग्रकोटि चिच्छेद भल्लेन बलोद्धतस्य । विहाय तत्सोऽपि निरस्तभीतिः प्रासेन तं प्राहरदाजिशौण्डम् ॥६९ विदार्य नाराचपरम्पराभिर्वेगेन तं सन्नहनेन सार्द्धम् । तदार्ककोतिः शुशुभे नितान्तं हत्वा रिपुं को न विभाति युद्धे ॥७० अन्यैरजम्यं युधि कामदेवं प्रजापतिर्वीतभयो विजिग्ये । पुरा तपस्यन्भुवि कामदेवं प्रजापतिस्तीर्थकृतामिवाद्यः ॥७१ बभञ्ज दपं शशिशेखरस्य स्वबाहुवीर्यातिशयेन युद्धे । जयाशयामा हयकन्धरस्य विना प्रयासेन पितार्ककीर्तेः ॥७२ नभश्चरान्सप्तशतं विजित्य चित्राङ्गदादीन्विजयो विराजन् । पुरःस्थितं नीलरथं मदान्धमालोकयामास हरिय॑थेभम् ॥७३ अभीयतुस्तौ प्रधनाय वीरावन्योऽन्यमत्यूजितसत्त्वयुक्तौ । पूर्वापरौ वारिनिधी यथान्ते कल्पस्य कल्पापरनाथकल्पौ ॥७४ बलाधिकस्यापि बलस्य पूर्व वक्षो विशालं गदया जघान । शिक्षाविशेष प्रथयन्ननेक विद्याधरः स्वं करणक्रियाभिः ॥७५ गदाप्रहारेण बलोऽपि तस्य प्रपद्य रन्ध्र मुकुटं शिरस्थम् ।
निपातयामास रुणा प्रगर्जग्निरम्मदेनेव घनोऽद्रिकूटम् ॥७६ चूडामणि को उखाड़ फेंका ॥ ६८ ॥ अश्वग्रीव ने भाला के द्वारा उस गर्वीले अर्ककोति के धनुष के अग्रभाग को छेद डाला तो उसने भी उस खण्डित धनुष को छोड़ कर निर्भय हो भाला से उस रणबांकुरे पर जोरदार प्रहार किया ॥ ६९ ॥ उस समय अर्ककीर्ति वाणों की सन्तति से वेगपूर्वक कवच के साथ अश्वग्रीव को विदीर्ण कर अत्यन्त सुशोभित हो रहा था सो ठीक ही है क्योंकि युद्ध में शत्रु को मार कर कौन सुशोभित नहीं होता ? ॥ ७० ॥ जिसप्रकार पहल पृथिवी पर तपस्या करनेवाले प्रथम तीर्थङ्कर वृषभदेव ने कामदेव को जीता था उसीप्रकार निर्भय राजा प्रजापति ने युद्ध में दूसरे के द्वारा अजेय कामदेव नामक राजा को जोता था ॥७१ ॥ अर्ककीति के पिता ज्वलनजटी ने अश्वग्रीव की विजयाभिलाषा के साथ किसी प्रयास के बिना ही अपने बाहुबल की अधिकता से युद्ध चन्द्रशेखर के गर्व को खण्डित कर दिया था ॥७२॥ चित्राङ्गद आदि सातसौ विद्याधरों को जीतकर सुशोभित होते हुए विजय ने सामने खड़े हुए मदान्ध नीलरथ को इसप्रकार देखा जिसप्रकार कि सिंह हाथी को देखता है ।। ७३ ।। इन्द्र के समान अत्यधिक पराक्रम से युक्त दोनों वीर युद्ध के लिये एक दूसरे के सन्मुख उसप्रकार गये जिस प्रकार कि कल्पान्त काल में पूर्व और पश्चिम समुद्र एक दूसरे के सन्मुख जाते हैं । ७४ । बलभद्र विजय यद्यपि बल-पराक्रम से अधिक थे तो भी युद्ध को नाना क्रियाओं के द्वारा अपनी अनेक प्रकार की शिक्षा-सम्बन्धी विशेषता को प्रकट करते हुए उस विद्याधर ने पहले उनके विशाल वक्ष-स्थल पर गदा से प्रहार किया ॥ ७५ ॥ इधर बलभद्र ने भी अवसर प्राप्त कर क्रोध से जोरदार गर्जना की और गदाप्रहार के द्वारा शिर पर स्थित उसके मकूट को उस प्रकार
१. नभश्चरान्सप्तशतानि जित्वा ब० । २. शिरस्तः म० ।