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________________ वर्षमानचरितम् द्वौ सतामभिमतौ नरोत्तमौ जन्म संसदि तयोः प्रशस्यते। यो न मुह्यति भये पुरःस्थिते यस्य संपदि मनो न माद्यति ॥३५ साधुरब्द इव भूतिसंगमानिमलो ननु सुवृत्ततां वहन् । भीषणो भवति दुर्जनः खरः प्रेतधामनि निखातशूलवत् ॥३६ लोचैनोद्गतविषानलप्रभास्पर्शदग्धमविधद्रुमश्रियः। को जिघृक्षति यथेच्छया फणारत्नसूचिमुरगस्य दुर्मतिः ॥३७ सामजो मदविचेतनोऽपि सन् पुष्करे क्षिपति नाघ्रिमात्मनः । क्षेमहीनमदमतमानसः किं नु चायति नतं भवत्पतिः ॥३८ क्षीववारणशिरोविदारणे क्रीडनस्थितिपटीयसो हरेः। निद्रया पिहितचक्षुषोऽपि कि जम्बुकेन परिलुप्यते सटा ॥३९ को धारण करता हुआ जो राजा बिना कारण दूसरों का पराभव करता है वह इस संसार में कितनी देर तक जीवित रहता है ॥ ३४ ॥ सत्पुरुषों के लिये दो ही नरोत्तम इष्ट हैं और उन दो का ही जन्म संसार में प्रशंसा को प्राप्त होता है एक तो वह जो कि भय के आगे स्थित होने पर भी मोह को प्राप्त नहीं होता और दूसरा वह जिसका कि मन संपत्ति में गर्वयुक्त नहीं होता ॥ ३५ ॥ साधु पुरुष दर्पण के समान भूमि-संपत्ति के समामम से (पक्ष में भस्म के समागम से) निर्मल होता है तथा सुवृत्तता-सदाचार को (पक्ष में गोल आकृति) को धारण किये रहता परन्तु दुर्जन श्मशान में गड़े हुए शूल के समान भयंकर तथा तीक्ष्ण होता है ॥ ३६ ॥ नेत्रों से निकली हई विषरूपी अग्नि की प्रभा के स्पर्श से जिसने समीपवर्ती वक्षों की शोभा को भस्म कर दिया है ऐसे साँप के फन पर स्थित रत्नशलाका को कौन दुर्बुद्धि पुरुष स्वेच्छा से ग्रहण करना चाहता है ? ॥ ३७ ॥ हाथी मद से विचेतन-कृत्य-अकृत्य के विचार से रहित होने पर भी आकाश में अपना पैर नहीं रखता है फिर कल्याणहीन मद-अहंकार से जिसका मन मत्त हो रहा है ऐसा आपका स्वामी भविष्यत् में नीचे आनेवाले अपने पैर को आकाश में क्यों रख रहा है ? भावार्थजिस प्रकार लोक में किसी अहंकारी मनुष्य की वृत्ति का वर्णन करते समय कहा जाता है कि अमुक के पैर जमीन पर न पड़कर आकाश में पड़ रहे हैं उसी प्रकार यहाँ विजय बलभद्र, अश्वनीव की अहंकार वृत्ति का वर्णन करते हुए उसके दूत से कह रहे हैं कि मद की अधिकता से जिसकी चेतना शक्ति-सत-असत के विचार की शक्ति तिरोहित हो गई है ऐसा हाथी भी जब आकाश में पैर नहीं रखता तब तुम्हारा स्वामी मद से मत्तहृदय होकर आकाश में पैर क्यों रख रहा है ? और उस दशा में जब कि उसके पैर भविष्यत् में स्वयं ही नीचे आ जाने वाले हैं ॥ ३८ ॥ मदोन्मत हाथी का शिर विदीर्ण करने की क्रीड़ा में निपुण सिंह भले ही नींद से नेत्र बंद किये हो उसकी अयाल-गर्दन की सटा क्या शृंगाल के द्वारा विलुप्त की जाती है ? अर्थात् नहीं । भावार्थ-हरि सातजसतक १. म० पुस्तके ३७-३८ श्लोकयोः क्रमभेदो वर्तते । २. क्षपति ब० । ३. पुष्करं करिहस्ताग्रे वाद्यभाण्डमुखे जले। व्योम्नि खङ्गफले पद्म तीर्थौषधिविशेषयोः॥-इत्यमरः ४. किं न चापयति तं भवत्पतिः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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