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________________ अष्टमः सर्गः अश्वकण्ठमपहाय कः सतां वल्लभो नयपरश्च कथ्यते । तादृशोऽपि खलु वेत्ति न क्रियां लौकिकों जगति कः समस्तवित् ॥ २७ योsafrष्ट भुवि कन्यकां नरस्तद्वरः खलु स एव किं भवेत् । हेतुरत्र ननु दैवमिष्यते तन्न लङ्घयति कोऽपि शक्तिमान् ॥२८ युक्तिहीनमिति कर्तुमुद्यतस्त्वत्पतिः किमु न साधुना स्वया । वारितो मतिमता बुधोऽप्यहो निश्चिनोत्यसदपि प्रभोर्मंतम् ॥ २९ कस्य वा बहुविधं मनोरमं वस्तु पूर्वसुकृतान्न जायते । किं स एव बलिनानुनाथ्यते संमता न हि सतामियं क्रिया ॥३० युक्तसङ्गममवेक्ष्य दुर्जनः कुप्यति स्वयमकारणं परम् । चन्द्रिकां नभसि वीक्ष्य निर्मलां कः पसे भवति मण्डलाद्विना ॥३१ यो विवेकरहितो यथेच्छया वर्तते पथि सताम सम्मते । निस्त्रपः स खलु दण्ड्यते न कैस्तुङ्गशृङ्गशफर्वाजतः पशुः ॥३२ प्रार्थनाधिगतजीवितस्थितिस्तार्कु कोऽप्युचितनेव याचते । ईदृशं जगति याचनाविध वेत्ति सप्तिगल एव नापरः ॥३३ श्रीः स्थिता मयि परातिशायिनी दुर्जयोऽहमिति गर्व मुद्वहन् । यः परानभिभवत्यकारणं सोऽत्रजीवति कियच्चिरं नृपः ॥३४ ९३ दूसरा कौन समर्थ हो सकता है ।। २६ ।। अश्वग्रीव को छोड़कर दूसरा कौन सज्जनों के लिये प्रिय तथा नीति में तत्पर कहा जाता है ? परन्तु आश्चर्य तो यह है कि वह वैसा होकर भी लोकसम्बन्धी क्रिया को नहीं जानता है सो ठीक ही है; क्योंकि संसार में सबको जानने वाला कौन है ? ।। २७ ।। पृथ्वी पर जो मनुष्य कन्या को वरता है निश्चय से वही उसका पति क्यों होता है ? परमार्थ से इसमें दैव ही कारण माना जाता है । उस दैव को कोई भी शक्तिमान नहीं लाँघता है ॥२८॥ इस प्रकार तुम्हारा स्वामी युक्तिहीन कार्य करने के लिये उद्यत है, तुम साधु तथा बुद्धिमान हो अतः तुमने उसे रोका क्यों नही ? आश्चर्य है कि विद्वान् पुरुष भी स्वामी के असत् कार्य का समर्थन करते हैं ।। २९ ।। अथवा पूर्वकृत पुण्य से किसके नाना प्रकार की सुन्दर वस्तुएँ नहीं होती ? अर्थात् सभी को होती है, फिर तुम्हारे बलवान् स्वामी के द्वारा उसी त्रिपृष्ट से क्यों बार-बार याचना की जाती है ? यह याचना की क्रिया सत्पुरुषों के लिषे इष्ट नहीं है ।। ३० ।। योग्य समागम को देखकर दुष्ट पुरुष बिना कारण दूसरे से स्वयं क्रोध करता है सो ठीक ही है क्योंकि आकाश में निर्मल चाँदनी को देखकर कुत्ते के सिवाय दूसरा कौन भौंकता है ? ||३१|| जो विवेकहीन मनुष्य सज्जनों के असंमत मार्ग में स्वेच्छानुसार प्रवृत्ति करता है वह निर्लज्ज निश्चय ही ऊँचे सींग तथा खुरों सेहत पशु है और किनके द्वारा वह दण्डित नहीं होता ? अर्थात् सभी के द्वारा होता है ||३२|| याचना से प्राप्त हुईं वस्तुओं से ही जिसके जीवन की स्थिति है ऐसा याचक भी उचित वस्तु की ही याचना करता है परन्तु संसार में ऐसी याचना की विधि को अश्वग्रीव ही जानता है दूसरा नहीं ॥ ३३ ॥ ‘मेरे पास दूसरों को तिरस्कृत करनेवाली लक्ष्मी है तथा मैं दुर्जय हूँ' इस प्रकार के गर्व १. वाच्यते ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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