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________________ वर्धमानचरितम् अहमेव हि वेनि केवलं न विजानाति परोऽस्य पौरुषम् । अपिदैवममानुषाश्रयं भवतां मौनमतो विभूषणम् ॥४८ इति पौरुषसाधनं परं विजये कार्यमुदीर्य दुर्जये। विरते मतिसागरो गिरं मतिमानीतिविदित्युदाहरत् ॥४९ इति कृत्यविधौ विदा सता विजयेनेह परिस्फुटीकृते। अपि देव तथापि शकते प्रविधातुं जडधीरयं जनः ॥५० किमिदं कथितं न तत्त्वतः सकलं ज्योतिषिकेण नः पुरा। अहमस्य तथाप्यमानुषों श्रियमिच्छामि परां परीक्षितुम् ॥५१ सुविचार्य कृताद्धि कर्मणः परिणामेऽपि भयं न जायते। अतएव विवेकवान् क्रियामविचारभते न जातुचित् ॥५२ समरे ननु चक्रवतिनं खलु जेता भुवि यस्तु साधयेत् । इह सप्तभिरेव वासरैरथ विद्याः सकलाः स केशवः ॥५३ इति ते निकषोपलायितं वचनं तस्य विधेयवस्तुनः। अवगम्य तथेति मेनिरे करणीयं सनिरस्तसंशयम ॥५४ अथ तस्य परीक्षितुं श्रियं विजयस्यापि समादिशन्मिथः । • ज्वलनोपपदो जटी परं पुरुविद्यागणसाधनाविधिम् ॥५५ मदस्रावी हाथी अर्गल-आगल का उल्लङ्घन कर हाथी के बच्चे को मार देता है ।। ४७ ॥ केवल मैं ही इसके दैविक तथा लोकोत्तर पौरुष को जानता हूँ दूसरा नहीं इसलिये इस विषय में आप लोगों का मौन रहना ही भूषण है । भावार्थ-आप लोग इसके पराक्रम को दैविक तथा लोकोत्तर समझ कर इसे अजेय मानते हैं पर मैं जानता हूँ कि इसका पराक्रम कैसा है अतः आप लोग इस विषय में चुप रहिये ।। ४८ । इसप्रकार दुर्जेय विजय, 'कार्य का उत्कृष्ट साधन पौरुष ही है' यह कह कर जब चुप हो गया तब नीति को जाननेवाला बुद्धिमान् मतिसागर मन्त्री इस प्रकार बोला ॥४९॥ यहाँ विद्यमान विद्वान् विजय ने यद्यपि कार्य की विधि को इस प्रकार अत्यन्त स्पष्ट कर दिया है तथापि हे राजन् ! यह जडबुद्धि जन तदनुसार कार्य करने के लिये शङ्का करता है ॥५०॥ क्या हम लोगों के सामने ज्योतिषी ने परमार्थ से यह सब नहीं कहा था ? यद्यपि कहा था तो भी मैं इसकी लोकोत्तर उत्कृष्ट लक्ष्मी की परीक्षा करना चाहता हूँ ॥५१।। क्योंकि अच्छी तरह विचार कर किये हुए कार्य से फलकाल में भी भय नहीं होता है इसलिये विवेकी मनुष्य विचार किये विना कभी कार्य प्रारम्भ नहीं करता ।। ५२ ॥ जो पृथिवी पर सात ही दिन में समस्त विद्याओं को सिद्ध कर लेगा वह निश्चय ही युद्ध में चक्रवर्ती अश्वग्रीव को जीतेगा और जीतने के बाद वही नारायण होगा ॥५३ ।। इसप्रकार मतिसागर मन्त्री के वचन को करने योग्य कार्य की कसौटी के समान जान कर सब लोगों ने कार्य को संशय रहित हो उसी प्रकार मान लिया ॥ ५४ ।। तदनन्तर त्रिपृष्ट की १. चक्रवर्तिनः म० । ४ म प्रतौ ५२-५३ श्लोकयोर्मध्ये किरातार्जुनीयस्य 'सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वृणते हि विमृश्य कारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।' इति श्लोकोदत्तः । ब प्रती स नास्ति । समानार्थकतया पादटिप्पणेऽङ्गीकृतः स लेखकप्रमादेन मूले समायोजितः इति प्रतिभाति ।।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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