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सप्तमः सर्गः परमस्तमुपैति भानुमानपि तेजोविरहाद्दिनात्यये। अतएव च धाम भासुरं न जहाति क्षणमप्युदारधीः ॥४२ उपगच्छति सामभिः शमं महतो नैव निसर्गशात्रवः। भजते च स तैः प्रचण्डतां सलिलैरौवंशिखीव वारिधेः॥४३ अभिगर्जति तावदुद्धतो मदनिश्चेतनधीरनेकपः। पुरतः प्रतिभीषणाकृति न हरि यावदुदीक्षते रिपुम् ॥४४ असुहृत्त्वविधावुपस्थितं भुवि दुर्मिकमात्तविक्रियम् । शमयेन्मतिमान्महोदयं सहसाच्छेदनमन्तरेण कः ॥४५ द्विरदं विनिहन्ति केसरी स्वयमन्विष्य च यः समन्ततः। निजवासगुहाभुपागतं स च तं मुश्चति किं युयुत्सया ॥४६ भवतां प्रविलय भारतीमविलङ्घयामपि किं ममानुजः।
न हिनस्ति तमश्वकन्धरं कलभं गन्धगजो यथागंलम् ॥४७ सहसा लाँघ लिया जाता है उसी प्रकार बड़े से बड़ा क्षमाधर-क्षमा को धारण करनेवाला भी, मनुष्य के द्वारा लाँघ लिया जाता है—अपमानित कर दिया जाता है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में किस सत्पुरुष की क्षमा उसके तिरस्कार का कारण नहीं होती है ? ॥४१।। संध्या के समय तेज का अभाव हो जाने से सूर्य भी अत्यन्त अस्त को प्राप्त हो जाता है इसीलिये उदारबुद्धि पुरुष क्षणभर के लिये भी देदीप्यमान तेज को नहीं छोड़ता है ॥ ४२ ॥ महान् पुरुष के शान्तिपूर्ण उपायों से स्वाभाविक शत्रु शान्ति को प्राप्त नहीं होता किन्तु उनसे उस प्रकार प्रचण्डता को प्राप्त होता है जिस प्रकार कि समुद्र के जल से बडवानल ॥४३॥ जिसकी बुद्धि मद से चेतना-हीन हो रही है ऐसा उद्दण्ड हाथी तभी तक गर्जता है जब तक कि वह सामने खड़े हुए भयंकर आकृति के धारक सिंह रूप शत्रु को नहीं देखता है ।। ४४ ।। जो शत्रुता के करने में उद्यत है, तथा अनेक प्रकार के विकारों से युक्त है ऐसे महोदय-बढे हुए दुर्नामक-अर्श की बीमारी को छेदनक्रिया-शल्यक्रिया (आप्रेशन) के बिना कौन बुद्धिमान् शान्त कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। भावार्थ-संस्कृत में दुर्नामक और अर्शस्-ये दो बवासीर रोग के नाम हैं । यह कष्टदायक व भयंकर रोग हैं। यह रोग जब अधिक बढ़ जाता है तब शत्र के समान दुख देता है तथा रक्तपात आदि अनेक विकार उत्पन्न करता है। इसके शान्त करने का उपाय छेद करना ही है अर्थात् शल्यचिकित्सा के द्वारा मस्से को काट देना ही इसका उपाय है। इसी प्रकार जो शत्रु, शत्रुता करने में उद्यत रहता है बार-बार शत्रुता करता है तथा अनेक प्रकार के विकारउपद्रव खड़े करता है उस शक्तिशाली शत्रु को छेदनक्रिया-तलवार आदि के प्रहार से ही शान्त किया जाता है, शान्ति से नहीं॥४५॥ जो सिंह स्वयं सब ओर खोज कर हाथी को मारता है वह अपने निवास की गुहा में आये हुए उस हाथी को क्या युद्ध की इच्छा से छोड़ता है ? अर्थात् नहीं छोड़ता ॥४६॥ यद्यपि आप लोगों की वाणी उल्लङ्घन करने योग्य नहीं है तो भी मेरा छोटा भाई त्रिपृष्ट उसका उल्लङ्घन कर उस अश्वग्रीव को क्या उस प्रकार नहीं मारेगा जिसप्रकार कि १. वुपासितं ब० । २. 'दुर्नामकार्शसी' इत्यमरः । ३. समये मतिमान् म० । ४. यथार्गलाम् म० ।