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षष्ठः सर्गः
श्रुत्वाथ खेचरपतेर्दुहितुः प्रदानं भूगोचराय विदितात्मचरेण 'गीतम् । सद्यश्चुकोप गगनेचरचक्रवर्ती सिंहो यथा नवपयोधरधीरनादम् ॥२३ कोपेन पल्लवितभीषणदृष्टिपातैरङ्गारसंचयतिवावकिरन्सभायाम् । इत्थं जगाद वितताशनिघोरनादः प्रस्वेदवारिकणिकास्तबकावतंसः ॥२४ हे खेचराः श्रुतमिदं न किं भवद्भिर्यत्कर्म तेन विहितं खचराधमेन । युष्माजरत्तणमिव प्रविलङ्घय दत्तं कन्याललाम मनुजाय जगत्प्रधानम् ॥२५ इत्याहतं प्रतिमुखं वचनेन तस्य प्रक्षोभधूणितमुवाह सदः समस्तम् । लीलां प्रसादविरहादविलोकनीयां कल्पान्तकालपवनाभिताम्बुराशेः ॥२६ अग्रेसरः स्थितिमतामविलडनीयां बिभ्रत्समुन्नतिमनन्यभवोरुसत्त्वः । कोपात्प्रकम्पितजगज्जनताक्षयाय प्रालयशैल इव नीलरथश्चचाल ॥२७ चित्राङ्गदो निहतशात्रवशोणितेन चित्रांगदां परिभृशन्नुदगाकरेण ।
वामेन वेगचलिताङ्गदपद्मरागच्छायापदोन्मिषितकोपदवानलेन ॥२८ राजा ज्वलनजटी ने अपनी पुत्री भूमिगोचरी के लिये दी है' अपने प्रसिद्ध गुप्तचर के द्वारा कहे हुए इस समाचार को सुनकर विद्याधरों का चक्रवर्ती अश्वग्रीव शीघ्र ही उस तरह कुपित हो गया जिस तरह कि नवीन मेघ की गम्भीर गर्जना को सुनकर सिंह कुपित होता है ।। २३ ।। क्रोध के कारण पल्लवों के समान लाल-लाल भयंकर दृष्टिपात से जो सभा में मानों अंगार समूह की वर्षा कर रहा था, जिसका शब्द विस्तृत वज्रपात के समान भयंकर था और जो स्वेदजलकणों के समूह रूप कर्णाभरणों से युक्त था ऐसा अश्वग्रीव इस प्रकार बोला ।। २४ ।। हे विद्याधरो ! उस नीच विद्याधर ने जो काम किया है इसे निश्चय ही आप लोगों ने क्या सुना है ? उसने तुम सबको जीर्ण तृण के समान उलङ्घ कर जगत् में श्रेष्ठ कन्यारूपी आभूषण भूमिगोचरी मनुष्य के लिये दिया है ॥ २५ ॥ अश्वग्रीव के यह कहने से समस्त सभा अत्यधिक क्षोभ के कारण इस प्रकार काँप उठी मानों प्रत्येक के मुख पर प्रहार किया गया हो। प्रसन्नता के नष्ट हो जाने से वह सभा प्रलयकाल की वायु से क्षुभित समुद्र की अदर्शनीय लीला को धारण करने लगी ॥ २६ ॥ क्रोध से जगत् को कम्पित करनेवाला नीलरथ विद्याधर, भूमिगोचरी मनुष्यों का क्षय करने के लिए इस प्रकार चला जैसे हिमालय ही चल रहा हो क्योंकि हिमालय और नीलरथ में सादृश्य था । जिस प्रकार हिमालय स्थितिमान्–पर्वतों में अग्रसर-प्रधान है उसी प्रकार नीलरथ भी स्थितिमान्–मर्यादा के रक्षक पुरुषों में प्रधान था। जिस प्रकार हिमालय अविलडनीय उन्नति-न लाँघने योग्य ऊँचाई को धारण करता है उसी प्रकार नीलरथ भी न लाँघने योग्य उन्नति-अभ्युदय को धारण कर रहा था और जिस प्रकार हिमालय अनन्यभवोरुसत्त्व-अन्यत्र न होनेवाले बड़े-बड़े जन्तुओं से संयुक्त है उसी प्रकार नीलरथ भी अनन्यभवोरुसत्त्व--दूसरे पुरुषों में न होनेवाले विशाल पराक्रम से भरा था ॥ २७ ॥ चित्राङ्गद, मारे हुए शत्रुओं के खून से चित्र-विचित्र गदा को बाँये हाथ से घुमाता हुआ उठकर खड़ा हो गया। उस समय उसका बाँया हाथ वेग से कम्पित बाजूवंद में संलग्न पद्मराग मणियों की कान्ति के छल से ऐसा जान पड़ता था मानों क्रोध रूप दावानल को प्रकट ही कर रह
१. नीतम् म० । २. न तु म० । ३. नीलरथोऽप्यचालीत् ब० । ४. निहित ब०।