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________________ ६६ वर्धमानचरितम् प्रत्यालयं प्रहतमङ्गलतूर्यशङ्खमुत्थापितध्वजवितान कृतान्धकारम् । प्राग्द्वारदेशविनिवेशितशातकुम्भकुम्भाग्रदत्तसुकुमारयवप्ररोहम् ॥१७ नृत्यन्मदालसवधूजनवक्त्रपद्मव्यासक्तकामुक विलोचनमत्तभृङ्गम् । रङ्गावलीविरचितोज्ज्वलपद्मरागप्रेङ्खत्प्रभापटल पल्लवितान्तरिक्षम् ॥१८ उच्चारणाचतुरचारणवन्दिबृन्द कोलाहल प्रतिनिनादितसर्वदिक्कम् । आसीत्परस्पर विभूतिजिगीषयेव रम्यं पुरं खचरसन्निहितं वनं च ॥१९ [विशेषकम् ] संभिन्नदत्तदिवसेऽथ जिनेन्द्रपूजां पूर्वं विधाय जिनमन्दिरमन्दराग्रे । लक्ष्मीमपास्तकमलामिव खेचरेन्द्रः पुत्रों दिदेश विधिना पुरुषोत्तमाय ॥२० केयूरहारकट कोज्ज्वलकुण्डलाद्यैः संमान्य राजकमशेषमशेषितारिः । कन्याप्रदानवहनेन समं महिष्या चिन्तासमुद्रमत रन्नमिवंशकेतुः ॥ २१ इत्थं प्रदाय तनुजां विजयानुजाय प्रीति परामुपययौ खचराधिनाथः । एष्यन्महाभ्युदय वैभवभाजनेन सम्बन्धमेत्य महता सह को न तुष्येत् ॥ २२ राजा प्रजापति तथा ज्वलनजटी विधाता रूप गुप्तचर के द्वारा पहले से ही रची हुई पुत्रपुत्रियों के विवाह की विस्तृतमहिमा को पूर्ण करने के लिये फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित घर में प्रविष्ट हुए ।। १६ ।। जिनमें घर-घर माङ्गलिक बाजे और शङ्खों का शब्द हो रहा था, ऊपर फहराई हुई पताकाओं के समूह से जिनमें अन्धकार किया गया था, जिनमें पूर्वद्वारदेश में रक्खे हुए सुवर्णमय कलशों के अग्रभाग पर जौ के सुकोमल अङ्कुर दिये गये थे, जिनमें नृत्य करती हुईं मद से अलसाई स्त्रियों के मुख कमलों पर कामीजनों के नेत्र रूपी भ्रमर संलग्न हो रहे थे, जिनमें रङ्गावली के बीच दिये हुए देदीप्यमान पद्मराग मणियों की ऊपर की ओर उठती हुई कान्ति के समूह से आकाश पल्लवित — लाल-लाल पत्तों से युक्त हो रहा था, और जहाँ उच्चारण करने में चतुर चारणों और वन्दियों के समूह के कोलाहल से समस्त दिशाएँ प्रतिध्वनि से गूँज रही थीं ऐसा नगर और विद्याधरों से अधिष्ठित वन - दोनों ही परस्पर की विभूति को जीतने की इच्छा से ही मानों रमणीय हो रहे थे ।। १७-१९ ।। तदनन्तर संभिन्न नामक निमित्तज्ञानी के द्वारा दिये हुए दिन, विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने सबसे पहले जिनमन्दिररूपी मेरुपर्वत के अग्रभाग पर जिनेन्द्र देव की पूजा की। पश्चात् त्रिपृष्ट नारायण के लिये विधिपूर्वक अपनी पुत्री प्रदान की । वह पुत्री ऐसी जान पड़ती थी मानों कमल को छोड़कर आई हुई लक्ष्मी ही हो ॥ २० ॥ शत्रुओं को नष्ट करनेवाले राजा ज्वलनजटी ने बाजूबंद, हार, कटक तथा देदीप्यमान कुण्डल आदि के द्वारा समस्त राजाओं का सम्मान किया। इसप्रकार मनुवंश की पताका स्वरूप ज्वलनजटो, कन्यादानरूपी नौका के द्वारा अपनी रानी के साथ-साथ चिन्ता रूपी समुद्र को तैर कर पार हुआ ।। २१ ।। इसप्रकार विजय के छोटे भाई त्रिपृष्ट के लिये पुत्री देकर विद्याधरों का अधिपति परम प्रीति को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि आगे आनेवाले महान् अभ्युदय तथा वैभव के पात्र स्वरूप महापुरुष के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होकर कौन नहीं संतुष्ट होता है ? ॥ २२ ॥ तदनन्तर विद्याधरों के १. विरचितामल ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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