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________________ पंचमः सर्गः अतोऽस्मदीशः कुशलीभवन्तं दूरस्थितोऽपीन्दुरिवाम्बुराशिम्। . अनामयं पृच्छति मन्मुखेन प्रेम्णा समाश्लिष्य पुराणबन्धुम् ॥१०४ सुतोऽर्ककीतिः क्षपितारिकीतिः स्वयंप्रभा तस्य सुताद्वितीया। देवी च पादद्वितयं प्रणामैरभ्यर्चयन्तीश तवार्चनीयम् ॥१०५ मालभारणी अथ कल्पलतामिवैकपुष्पां सदशां कामफलोन्मुखीमुपेताम् । तनयामवलोक्य तत्समानं न वरं मन्त्रिविलोचनोऽप्यपश्यत् ॥१०६ कुशलं सकले निमित्ततन्त्रे विहितप्रत्ययमाप्तमाप्तमानम् । उपगम्य रहस्यमात्यमुख्यैः सह संभिन्नमवोचदेवमीशः ॥१०७ सदृशः सुदृशः स्वयंप्रभायाः पतिरस्माभिरवेक्षितो न कश्चित् । अवलोकय दिव्यचक्षुषा तं ननु मत्कृत्यविधौ भवान्प्रमाणम् ॥१०८ प्रहर्षिणी इत्युक्त्वा विरतवति स्वकार्यबीज संभिन्नः खचरपताववोचवित्थम् । त्वत्कृत्यं शृणु विदितं मया मुनीन्द्रावायुष्मन्नवधिदृशः पुरा यथावत् ॥१०९ उज्ज्वल कुल को अलंकृत करता है। इसके सिवाय नीति को जाननेवाला वह ज्वलनजटी तुम्हारी बुआ का पुत्र है ॥१०३। जिस प्रकार चन्द्रमा दूर रहने पर भी समुद्र से आरोग्य प्रश्न-कुशल मङ्गल पूछता रहता है उसी प्रकार हमारा राजा दूर रहने पर भी निरन्तर कुशल रहनेवाले अपने पुराने बन्ध का प्रेम से आलिङ्गन कर मझ से कुशल-मङ्गल पूछ रहा है॥१०४॥ हे ईश ! शत्रओं की कीर्ति को नष्ट करनेवाला अर्ककीति उसका पुत्र है, स्वयंप्रभा उसकी अद्वितीय पुत्री है तथा वायुवेगा उसकी रानी है । ये सब आपके पूजनीय चरण युगल की प्रणामों द्वारा पूजा करते हैं अर्थात् बारबार आपके चरणों में नमस्कार करते हैं ॥ १०५ ।। तदनन्तर राजा ज्वलनजटी ने एक दिन अद्वितीय पुष्प से युक्त कल्पलता के समान, कामरूप फल के उन्मुख दशा-तरुण अवस्था को प्राप्त पुत्री को देखा । पुत्री को देखते ही वर को ओर उसका मन गया परन्तु मन्त्री रूप नेत्रों से युक्त होने पर भी उसे कन्या के योग्य कोई वर नहीं दिखा ॥ १०६॥ तत्पश्चात् जो समस्त निमित्त-शास्त्रकुशल था, जिसका विश्वास किया जाता था तथा जो आप्त के समान सन्मान को प्राप्त था ऐसे संभिन्न नामक निमित्त ज्ञानी के पास एकान्त में प्रमुख मन्त्रियों के साथ जाकर राजा ज्वलनजटी ने इस प्रकार कहा ।। १०७ ।। हम लोग सुन्दर नेत्रों वाली स्वयंप्रभा के योग्य किसी वर को नहीं देख सके हैं अतः आप अपने दिव्य नेत्रों से उस वर को देखिये । निश्चय से मेरे कार्य के संपत्र करने में आप ही प्रमाण हैं ।। १०८ ।। इस प्रकार अपने कार्य के बीज को कहकर जब विद्याधरों का राजा ज्वलनजटी चुप हो गया तब संभिन्न निमित्तज्ञानी इस तरह बोला हे आयुष्मन् ! मैंने पहले अवधिज्ञानी मुनिराज से तुम्हारा कार्य को जैसा जान रक्खा है वैसा तुम सुनो ॥१०९ ॥ इस भरतक्षेत्र में चक्रवर्ती भरत के वंश में उदार तथा सार्थक नाम से युक्त, एक
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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