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________________ वर्धमानचरितम् विहायसा कश्चिदुपेत्य देव द्वारि स्थितो विस्मयनीयमूतिः । तेजोमयो वीक्षितुमिच्छति त्वां प्रमाणमत्र त्वमिति व्यरंसीत् ॥९६ प्रवेशय द्राक्सुमुखेत्यथाज्ञामवाप्य राज्ञो निनिवृत्य गत्वा । प्रावेशयत्तं सभया समीक्ष्यं सविस्मयोत्फुल्लदृशौ ' विवृत्य ॥९७ राजा समेत्यानतमादरेण स्वहस्तनिर्दिष्टहिरण्यपीठे | अदूरवर्तिन्युपवेश्य किञ्चिद्विश्रान्तमाल्लोक्य तमाबभाषे ॥९८ सौम्याकृतिः कस्त्वमनन्यसाम्यः कस्मादिमां भूमिमुपागतोऽसि । किमर्थमायात इति क्षितीशा स्वयं स पृष्टः पुनरेवमूचे ॥९९ अस्त्यत्र शैलो विजयार्धनामा नरेन्द्र विद्याधरलोकवासः । श्रेणीद्वयेनोत्तरदक्षिणेन विराजितो राजततुङ्गशृङ्गः ॥१०० श्रेणीमपाचीं रथनूपुराख्यं पुरं समाध्यास्य महेन्द्रलीलः । नभश्चराणां ज्वलनादिरेकः पतिर्जंटी नाम भुनक्ति तत्र ॥१०१ त्वदन्वयाद्यः प्रथमस्य सनुर्महात्मनां बाहुबली जिनानाम् । निपीडय दोर्भ्या भरतेश्वरं यो मुमोच लक्ष्म्या सह हेलयैव ॥ १०२ अलंकरोतीन्दुकरावदातं नमः कुलं कच्छनृपात्मजस्य । नभश्चराणामधिपोऽपि राजन्पितृष्वसुस्ते तनयो नयज्ञः ॥ १०३ रहे थे, जो हाथ में सुवर्ण की घड़ी लिये हुए था तथा हर्ष से जिसके वचन रुके हुए थे द्वारपाल, दौड़ता हुआ पास आकर राजा से इस प्रकार कहने लगा ।। ९५ ।। हे देव ! आकाश से आकर द्वार पर खड़ा, आश्चर्य कारक शरीर का धारक कोई तेजस्वी पुरुष आपके दर्शन करना चाहता है । इस विषय में आप ही प्रमाण हैं इतना कह कर वह चुप हो गया ।। ९६ ।। ' हे सुमुख ! उसे शीघ्र प्रवेश कराओ' इस तरह राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल लौट कर गया और आश्चर्य से विकसित दृष्टि को इधर-उधर घुमाते हुए उसने सभा के द्वारा दर्शनीय उस पुरुष को भीतर प्रवेश करा दिया ।। ९७ ।। आकर आदर से नमस्कार करनेवाले उस पुरुष को राजा ने अपने हाथ दिखाये हुए समीपवर्ती सुवर्ण पीठ पर बैठाया । पश्चात् जिसने कुछ विश्राम उस पुरुष को देख उन्होंने कहा ।। ९८ ।। सौम्य आकृति के धारक तथा अन्य रहित तुम कौन हो ? कहां से इस भूमि पर आये हो ? तथा किस प्रयोजन से आये हो ? इस प्रकार राजा द्वारा स्वयं पूछे जाने पर वह आगन्तुक पुरुष पुनः इस प्रकार बोला ।। ९९ ।। हे राजन् ! यहां एक विजयार्ध नामका पर्वत है, जो विद्याधर लोगों का निवास स्थान कहलाता है, वह अपनी उत्तर और दक्षिण इन दो श्रेणियों से सुशोभित है तथा चांदी की ऊँचे शिखरों से युक्त है ॥ १०० ॥ दक्षिण श्रेणी के रथनूपुर नगर में निवास करनेवाला, इन्द्र के समान लीला से युक्त तथा विद्याधरों का अद्वितीय पति ज्वलनजटी उस पर्वत की रक्षा करता है ।। १०१ ।। तुम्हारे वंश का आदि पुरुष बाहुबली था जो महात्मा तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर का पुत्र था और भुजाओं से जिसने भरतेश्वर को पीड़ित कर लक्ष्मी के साथ अनायास ही राजन् ! विद्याधरों का राजा ज्वलनजटी भी राजा कच्छ के पुत्र नमि के १. दृशा म० । २. समाध्यास्य म० । कर लिया था ऐसे जनों की उपमा से छोड़ दिया था ॥ १०२॥ | हे चन्द्र किरण के समान
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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