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________________ ५६ वर्धमानचरितम् सुतरामशिक्षत कलाः सकला नृपविद्यया सममनन्यमतिः । गुणसंग्रहे जगति यत्नपरः शिशुरप्यहो भवति सत्पुरुषः ॥६४ तमवाप्य यौवनमवाप परां श्रियमेत्य सोऽपि तदभूत्सुभगः । प्रथमं प्रसूनमिव चूततरुं स च संप्रपद्य समये तदिव ॥ ६५ अतिमानुषं तमथ वर्म्मधरं जयगोमिनी प्रथममप्रकटम् । स्वयमालिलिङ्ग मदनाकुलधीरभिसारिकेव हृदयाभिमतम् ॥६६ अथभूपतिः सुतयुगेन समं सह राजकेन च सभाभवने । सुखमेकदास्त हरिपीठतटे घटितारुणाश्मकिरणाङ्कुरिते ॥ ६७ परिकुमलीकृतकराम्बुरुहः प्रणिपत्य देशसचिवो विदितः । उपलब्धवागवसरप्रसरः क्षितिपं व्यजिज्ञपदिति प्रकटम् ॥६८ अभिरक्षितामपि तवासिलताशितधारया धरणिनाथ धराम् । परिबाधते मृगगणाधिपतिर्बलवानहो जगति कर्मरिपुः ॥६९ स्वयमेव कि हरिपदेन यमो जनतां हिनस्त्युत महानसुरः । तव पूर्वशत्रुरथवा विबुधो न हि तादृशी मृगपतेविकृतिः ॥७० सुतयोषितोऽप्यनभिवीक्ष्य भयात्प्रपलायितं सकलजानपदैः । तव शात्रवैरिव शरीरभृतां न हि जीवितादपरमिष्टतमम् ॥७१ की कान्ति को हरण करनेवाले शरीर से धीरे-धीरे कठोरता को प्राप्त होता हुआ वह त्रिपृष्ट, राजा की रक्षा से समुद्र के भीतर अमूल्य नीलमणि के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगा ।। ६३ ।। अनन्य बुद्धि होकर उसने राजनीति के साथ समस्त कलाओं को अच्छी तरह सीखा सो ठीक ही है; क्योंकि आश्चर्य है कि जगत् में गुणों का संग्रह करने में तत्पर रहनेवाला शिशु भी सत्पुरुष हो जाता है ।। ६४ ।। जिस प्रकार वसन्त ऋतु में प्रथम पुष्प आम्रवृक्ष को प्राप्त कर परम शोभा को प्राप्त होता है और आम्रवृक्ष उस प्रथम पुष्प को प्राप्त कर सुन्दर हो जाता है उसी प्रकार उस पृष्ठ को प्राप्त कर यौवन परम शोमा को प्राप्त हुआ था और त्रिपृष्ट भी यौवन को प्राप्त कर सुन्दर हो गया था ।। ६५ ।। जिस प्रकार काम से आकुल बुद्धि वाली अभिसारिका अपने प्रियतम का स्वयं आलिङ्गन करती है उसी प्रकार विजय लक्ष्मी ने उस लोकोत्तर कवचधारी (तरुण) त्रिपृष्ट का पहले ही गुप्तरूप से आलिङ्गन किया था ।। ६६ ।। अथानन्तर एक दिन राजा प्रजापति सभाभवन में दोनों पुत्रों तथा अन्य राजाओं के साथ, जड़े हुए पद्मरागमणियों की किरणों से अङ्कुरित सिंहासन पर सुख से बैठे थे । ६७ ।। उसी समय जिसे बोलने का अवसर प्राप्त हुआ था ऐसा प्रसिद्ध देशमन्त्री हाथ जोड़ कर राजा से इस प्रकार स्पष्ट निवेदन करने लगा ॥ ६८ ॥ हे पृथिवीपते ! यह पृथिवी आपकी तलवार की तीक्ष्ण धारा के द्वारा यद्यपि सब ओर से सुरक्षित है तो भी सिंह उसे वाधा पहुँचा रहा है. सो ठीक ही है; क्योंकि आश्चर्य है कि जगत् में कर्मरूपी शत्रु बहुत बलवान् है ।। ६९ ।। क्या सिंह के छल से यमराज स्वयं जनता को मार रहा है; या कोई बड़ा असुर अथवा आपका पूर्वभव का शत्रु कोई देव प्रजा का घात कर रहा है। क्योंकि सिंह की वैसी विकृति नहीं होती ।। ७० ।। समस्त देशवासी लोग आपके शत्रुओं के समान भय से बच्चों तथा स्त्रियों की भी उयेक्षा कर भाग गये हैं सो ठीक ही है, क्योंकि प्राणियों को
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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