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पंचमः सर्गः
समभूदरातिकमलालयया स्तनयोर्युगं सह सुनीलमुखम् । ववृधे तदीयमुदरं च मुदा प्रतिवासरं सह समग्रभुवा ॥५५ अवलोक्य तां प्रथमगर्भवर्ती दधतीं निधानमिव सारभिलाम् । उदयाचलान्तरितशीतकरं रजनीमिव क्षितिपतिर्मुमुदे ॥५६ कृतचारुदौहृदविधिः क्रमतः समये सुतं मृगवती सुषुवे । निलयं श्रियो विपुलगन्धयुतं शरदीव पद्ममुकुलं नलिनी ॥५७ अथ हृष्टिवृद्धिरुदपादि तदा सकलेऽपि तत्र नगरे महती । परितञ्च पञ्चविधरत्नमयी निपपात वृष्टिरमला नभसः ॥५८ अनवद्यवाद्यलय तालसमं प्रणनर्त वारवनिताभिरमा । नृपमन्दिरेऽपि शिखिनां निवहः किमुतान्यदुत्सवनिविष्टमनाः ॥५९ स्वयमाददे निजमनोऽभिमतं सहसा वनीपकजनेन धनम् । अपहाय लाञ्छभिलाधिपतेर्धवलात पत्र मिरत्सकलम् ॥६० गणकस्त्रिकालविदनुच्चतनुः प्रथितोऽवतंस इव दिग्वलये । स्फुटमादिदेश नृपतेः स्वसुतो भवितार्द्धचक्रधर एष इति ॥ ६१ स्वकुलोचितां निपतेर्महिमां महतीं विधाय विधिना नृपतिः । अकरोत् त्रिपृष्ट इति नाम मुदा तनयस्य तस्य दशमे दिवसे ॥६२ शरदम्बरद्युतिमुषा वपुषा स शनैः शनैः कठिनतामुपयन् । परिरक्षया नरपतेर्ववृधे जलधेरमूल्य इव नीलमणिः ॥ ६३
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शरीर कृशता को प्राप्त हो गया था ।। ५४ ।। शत्रुओं की लक्ष्मी के साथ-साथ उसका स्तनयुगल कृष्णमुख हो गया था और समस्त पृथिवी के साथ-साथ उसका उदर प्रतिदिन हर्ष से वृद्धि को प्राप्त हुआ था ।। ५५ ।। जो श्रेष्ठ खजाने को धारण करनेवाली पृथिवी के समान थी अथवा उदयाचल से तिरोहित चन्द्रमा को धारण करनेवाली रात्रि के समान जान पड़ती थी ऐसी प्रथम गर्भवती मृगवती को देख कर राजा प्रसन्न हो रहे थे ।। ५६ ।। तदनन्तर जिसकी गर्भकालिक सुन्दर क्रियाएँ पूर्ण की गई थीं ऐसी मृगवती ने क्रम क्रम से समय आने पर उस तरह पुत्र को उत्पन्न किया जिस तरह कि शरद ऋतु में कमलिनी लक्ष्मी के निवास तथा बहुत भारी गन्ध से युक्त कमल के कुङ्मल ( कली ) को उत्पन्न करती है ॥ ५७ ॥ तत्पश्चात् समस्त नगर में उस समय बहुत भारी हर्ष की वृद्धि हुई और सब ओर आकाश से पाँच प्रकार के राजों से तन्मय निर्मल वृष्टि पड़ी || ५८ | उस समय और तो क्या, उत्सव में जिसका मन संलग्न था ऐसा मयूरों का समूह भी राजभवन में वेश्याओं के साथ-साथ निर्दोष बाजों की लय और ताल के अनुसार अत्यधिक नृत्य कर रहा था ।। ५९ ।। याचक जनों ने राजा के चिह्नस्वरूप सफेद छत्र को छोड़कर अपना मनचाहा अन्य समस्त धन स्वयं ही शीघ्र ले लिया था ।। ६० ।। त्रिकालज्ञ, उत्कृष्ट शरीर के धारक तथा दिशाओं में कर्णाभरण के समान ज्योतिषी ने राजा से स्पष्ट कह दिया था कि आपका यह पुत्र अर्द्ध चक्रवर्ती होगा ।। ६१ ।। राजा ने दसवें दिन विधिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की अपने कुल के योग्य बहुत बड़ी पूजा कर उस पुत्र का हर्षपूर्वक त्रिपृष्ठ यह नाम रखा ।। ६२ ।। शरद् ऋतु के आकाश १. प्रथितो वसन्त इति म० ।