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________________ ( ८६ ) भावार्थ — जेओ स्त्रीओना ओष्ठने अमृत समान मानीने कामथी प्रेरणा पामतां चुंबन करवाने प्रवर्त्तमान थाय छे. हे मित्र ! तेमना जीवनने धिक्कार छे ॥ ३ ॥ औरसं कृतसंबंधं तथा वंशक्रमागतम् । रक्षकं व्यसनेभ्यश्च मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधम् ॥ १ ॥ भावार्थ - औरस ( एक उदरथी उत्पन्न थयेल ), संबंधथी करवामां आवेल, तथा वंशना क्रमे आवेल अने संकटी बचावनार - एम चार प्रकारना मित्र कहे- ' वामां आवेल छे. ॥ १ ॥ औदार्यं प्रभुता धैर्य - मार्जवं मृदुता क्षमा । महतां हितसक्तानां गुणा एते स्वभावजाः ॥ २ ॥ भावार्थ- परोपकार करवामां आसक्त एवा महात्माओमां औदार्य, प्रमुता, धैर्य, सरलता अने मृदुता ( कोमळता) तथा क्षमा ए स्वाभाविक गुणो होय छे. २ औत्सुक्यं किं बिभर्घ्यंगे प्रविलोक्य सुखानि हि । विद्युत्तेजांसि किं ह्यत्र प्रयांति स्थिरतां कदा ||३|| भावार्थ - हे भव्यात्मन् ! आ संसारना विनश्वर
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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