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________________ (७९) थी, त्रीजाने विलास-विभ्रमथी अने अन्य कोईने भ्रकुटि तथा स्तनादिना दर्शनथी स्त्रीओ अत्यंत मोह पमाडे छे. तो हे चित्त ! आवी कुटिल अने कृत्रिम स्नेहवाळी स्त्रीओमां अत्यंत रति लावीने मुक्तिरूप स्त्रीना संगमथी केम विमुख थतो जाय छे !६. एकेन वनवृक्षेण पुष्पितन सुगंधिना। वासितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा ॥ ७॥ __ भावार्थ-जेम सुपुत्रथी कुल वासित थाय, तेम पुष्प तथा सुगंधयुक्त एकज वनवृक्षथी समस्त वन सुवासित थाय छे. ७ एता असारसंसार-जंगलाध्वनिचारिणः । सुखयंति जनान् दृष्टा मिष्टांभः कूपिका इव।।८॥ भावार्थ-मिष्ट जळनी वावडीओनी जेम आ अंगनाओ असार-संसाररूप मार्गमां चालता पुरुषोने सुख पमाडे छे-एम अज्ञ जनो समजे छे. ८ एकांते प्रमदाभोगभागपि ब्रह्मनिर्मलः । स्वयमाश्रवमुख्योऽपि वारिताश्रवविप्लवः ॥९॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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