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________________ (७७) धेर्ने ये । तेऽमी मानवराक्षसाः परहित स्वार्थाय निघ्नति ये ये तु नंति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥१॥ भावार्थ-सत्पुरुषो पोताना स्वार्थनो भोग आपीने परोपकार करे छ, सामान्य जनो पोताना स्वार्थ साथे परहित करे छे, पोताना हितनी खातर परना हितने बगाडे छे-ते नरराक्षसो समजवा अने जेओ निरर्थक परहितने आडे आवे छे एटटुंज नहि पण बगाडे छेतेमने कोण कहेवा-ते अमे समजी शकता नथी. १ एकोऽपि गुणवान्पुत्रो निर्गुणैः किं शतैरपि । एकश्चंदो जगच्चक्षु-नक्षत्रैः किं करिष्यते ॥२॥ भावार्थ-सेंकडो निर्गुणी पुत्री करतां एक गुणी पुत्र सारो. एक चंद्रज जगतना चक्षुरूप छे, नक्षत्रोथी शुं थवानुं छे ? २ एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भया । सहैव दशभिः पुत्रै-रिं वहति गर्दभी ॥३॥ भावार्थ-एक सुपुत्रने लीधे सिंहण निर्भय थइने
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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