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________________ ( ४४ ) मां दृष्टि थापवी, आसन आपकुं, तेनी सेवा करवी, ते शयन करे त्यारे पोते सुबुं अने तेनी पहेलां, जाग्रत थ - ए प्रमाणे हे पुत्री ! पूर्वपुरुषोओ ए कुलीन कांताओना सिद्धांतना धर्मागम कहेल छे, १२४ अधिकारात्रिभिर्मासैर्महापापात्रिभिर्दिनैः । शीघ्रं नरकवांछा चे-हिनमेकं पुरोहितः ॥ १२५ ॥ भावार्थ - अधिकारथी ऋण महिनामां अने महापापथी त्रण दिवसमां नरक मळे. छतां शीघ्र जो नरकनी इच्छा होय तो एक दिवस पुरोहित थवुं. १२५ अजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चांतिमः । सकृद्दुःख करावाद्या-वंतिमस्तु पदे पदे ॥ १२६ ॥ भावार्थ - जन्म न पामेल, मरण पामेल अने मूर्ख - ए aण प्रकारना पुत्र मां प्रथमना बे सारा कहेल छे अने छेवटनो सारो नहि. कारण के प्रथमना तो मात्र एकज वार दुख आपे छे अने छेवटनो ( मूर्ख) तो पगले पगले दुःखदायक थइ पडे छे. १२६
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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