________________
(४८२)
"विद्यारूपी धनतणुं नूतन अजब गणाय ॥ खरच्या विण खूटी पडे वधे जेम वपराय ॥८॥ वातथकी वखणाय नर वातथकीज निंदाय ॥ वातथकी हलको पडे वातें कीमत थाय ॥९॥ वीती वात विसारी दे भविस्य वेलुं भाल ॥ जे बनी आवे सहजमां ते हित सदा संभाल ॥ १० ॥ विवेक विनानो मानवी जाणो पशुसमान ॥ वानरने पण छे जुओ हाथ पाय मुख कान ॥ ११ ॥ वींछी केरी वेदना जेहने वीती होय ॥ जाणे ते जन एकलो अवर न जाणे कोय ॥ १२ ॥ विद्या रही जे पुस्तकें धन परहाथे जेह ॥ काम न आवे समयपर फोकट जाणो तेह ॥ १३ ॥ विष वेश्या नारी नदी अग्नि जुवारी काल ॥ .. ए साते नहि आपणा वली विशेषे भूपाल ॥ १४ ॥ विद्या पहेली वय विशें बीजी वयमां धन ॥ न कर्यो धर्म त्रीजी वयें निस्फल खोयो तन ॥ १५॥ विद्याथी जे वेगलो शूका काष्ठसम एह ॥ विद्या जेहने मुख वसी मोटो जन जग तेह ॥ १६ ॥