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________________ . (४४७) कल्पांते पण जेनो नाश थतो नथी-एवं विद्यारूप अंतर्धन जेमनी पासे छे, हे राजाओ ! तमे तेमना तरफ अभिमान करशो नहि, कारण के तेमनी साथे हरीफाई कोण करी शके ? २ हृदयानि सतामेव कठिनानीति मे मतिः। खलवाग्विशिखैस्तीक्ष्णै भियंते न मनाग्यतः ३ मावार्थ-हुं धारूं छु के संतजनोना हृदयो कविनज होय छे. कारण के दुर्जनोना वचनोरूप तीक्ष्ण बाणोंथी जे कदापि भेदाता नथी. ३ हे लक्ष्मि क्षणिके स्वभावचपले मूढे च पापाधमे न त्वं चोत्तमपात्रमिच्छसि खले प्रायेण दुश्चारिणि।ये देवार्चनसत्यशौचनिरता ये चामि धर्मे रतास्तेभ्यो लजसि निर्दये गतमतिर्नीचो जनो वल्लभः॥४॥ भावार्थ-क्षणिक, स्वमाये चपळ, मूढ, पापाधम, खल अवे निर्दय एवी हे लक्ष्मी ! तुं खरेखर ! दुश्चारिणी लागे छ तेथी उत्तम पात्रने तुं इच्छति नथी. जे लोको देवपूजामां तत्पर, सत्य, शौच अने धर्ममां सदा
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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