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________________ (४२०) मां स्थिरता न होय, मूर्ख जनोमां विवेक न होय तथा कर्मनो नाश नथी.८ स्थिरा कीर्तिरकीर्तिश्च स्थिरं कर्म शुभाशुभम् । स्थिरं दानं सुपात्रेषु स्थिरा मैत्री सतां जने ॥९॥ भावार्थ-लोकोमा कीर्ति के अकीर्त्ति स्थिर थई जाय छे, शुभाशुभ कर्म स्थिर थाय छ, सुपात्रे दान अचळ रहे छे अने सज्जनोनी मैत्री अचळ होय छे. ९ सुखी न जानाति परस्य दुःखं न यौवनस्था गणयंति शीलम् । आपद्रुता निष्करुणा भवंति आर्ता नरा धर्मपरा भवंति ॥१०॥ भावार्थ-सुखी मनुष्य परना दुःखने जाणतो नथी, युवक जनो शीलनी दरकार करता नथी, आपत्तिमां आवेला जनो करुणाहीन थइ जाय छे अने दुःखी जनो धर्मपरायण थता जोवामां आवे छे. १० सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किं सद्विद्या यदि किं धनैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनैः । लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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