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________________ ( २८ ) णामां रहेल रत्ननो प्रकाश, सर्प समान भयंकर एवा अंधकारने दूर करे छे, छतां तेमां भय तो बहुज रहेल छे. अपेक्षते न च स्नेहं न पात्रं न दशांतरम् । सदा लोकहिते युक्ता रत्नदीपा इवोत्तमाः ॥ ८२ ॥ भावार्थ - स्नेहनी जे अपेक्षा करता नथी, तेमज पात्रके दशांतरने पण जे जोता नथी तेमज निरंतर लोकहितमा नियुक्त एवा सज्जनो रत्नना दीवा जेवा होय छे. ८२ अप्रियवचनदरिद्वैः प्रियवचनाढ्यैः स्वदारपरितुष्टैः। परपरिवादनिवृत्तैः कचित्क्वचिन्मंडिता वसुधा ॥ ८३ ॥ भावार्थ - अप्रिय वचन न बोलनारा, प्रिय वचन बोलवामां सदा तत्पर, स्वद्वारा संतोषी अने परनिंदाथी निवृत्त थयेला एवा नररत्नोथीज आ वसुधा कंइ विभूषित थयेल छे. ८३ अपि विभवविहीनः प्रच्युतो वा स्वदेशान्नहि खलजनसेवां प्रार्थयत्युन्नतात्मा ॥ तनु तृण
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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