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( ३४८ ) भावार्थ-एकदा लक्ष्मी, विष्णु ने कहेवा लागी के हे स्वामिनाथ ! ज्यां अतिथिओने दान मान साथे चरण प्रक्षालन करीने भोजन आपवामां आवे छे, ज्यां सत्सेवा थाय छे, ज्यां माबाप अने देवताओनी पूजा करवामां आवे छे, ज्यां सत्य छे अने ज्यां पोताना वचननुं पालन करवामां आवे छे, ज्यां धान्यनो संग्रह करवामां आवे छे, ज्यां कलहनुं नाम पण नथी तथा ज्यां पतिना मनने अनुकूळ स्त्री छे एवा भवनमा हे नाथ ! हुं निश्चळ थइने निवास करूं हूं. ७२ . यदा तु भाग्यक्षयपीडितां दशां नरः कृतांतोपहितांप्रपद्यते । तदास्य मित्राण्यपि यांत्यमित्रतां चिरानुरक्तोऽपि विरज्यते जनः॥७३॥
भावार्थ-ज्यारे भाग्यनो क्षय थतां पुरुष यम समान भयंकर दशाने प्राप्त थाय छे, त्यारे तेना मित्रो पण शत्रु जेवा बनी जाय छे अने चिरकाळना अनुरक्त जनो पण विरक्त बनी जाय छे. ७३
यैः कारुण्यपरिग्रहान गणितः स्वार्थः परार्थ पति यैश्चात्यंतदयापरैर्न विहिता बंध्यार्थिनां