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(२६९) श्लाघ्यो मूक त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशया यः स्तोतव्यस्त्वं बधिर न गिरं यः खलानां शृणोषि ___ मावार्थ-हे पंगु ! तुं पण खरेखर ! वंदनीय छे, कारण के याचक थईने तुं बीजाओना घरे जई शकतो नथी. हे अंध ! तुं पण धन्य छे, के धनथी मदोन्मत्त थयेलाओना मुखने तुं जोई शकतो नथी. हे मुंगा! तुं पण श्लाघनीय छे के धननी आशाथी तुं कृपणनी स्तुति करी शकतो नथी अने हे बधिर (व्हेरा)! तुं पण प्रशंसापात्र छे के तुं खलजनोनी वाणी सांभळी शकतो नथी. ७१ परोपकारः कर्त्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि परोपकारजं पुण्यं न स्यात्क्रतुशतैरपि ॥७२॥ ___ भावार्थ-पोताना प्राणो अने धननो भोग आपीने पण परोपकार करवो. कारण के परोपकारथी जे पुण्य प्राप्त थाय छे, तेटलुं पुण्य सेंकडो यज्ञोथी पण मळी शकतुं नथी. ७२ परोपकृतिकैवल्ये तोलयित्वा जनार्दनः। गुर्वीमुपकृति मत्वा ह्यवतारान्दशायहीत् ॥७३॥