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________________ (२६७) छे, अंधकारनो प्रतीकार करवा दीवा बनाव्या छ, पवनना अमावे पवन लेवा माटे पंखा बनाव्या छे तथा मदोन्मत्त हाथीओना दर्पने शांत करवा जेणे अंकुश बनाव्या छे-ए प्रमाणे जगतमां एवू कांड नथी, के जेने माटे विधाताए चिंता करी न होय. परंतु हुं धारूं छु के दुर्जन पुरुषनी चित्तवृत्तिने काबूमा लाववा विधातानो पेरिश्रम पण निष्फळ थइ गयो.६८ पने मूढजने ददासि दविणं विद्वत्सु किं मत्सरो नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः । मूर्खेभ्यो दविणं ददामि नितरांतत्कारणं श्रूयतां विद्वान्सर्वगुणेषु पूजिततनुर्मूर्खस्य नान्या गतिः ॥ ६९ ॥ __ भावार्थ हे लक्ष्मी ! तुं मूढ जनोने धनवंत बनावे छे अने विद्वानोपर मत्सर धारण करे छे तेनुं कारण शुं ? लक्ष्मी कहे छ के-हुं विद्वानोपर मत्सर धारण करती नथी, अने चंचल पण नथी, तेमज मूर्ख जनो उपर मारे प्रीति नथी, परंतु मूर्ख जनोने धन आपुं ।
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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