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________________ ( २५७ ) पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा निवेशिता ॥ ४३ ॥ भावार्थ- पृथ्वीमां जळ, अन्न अने सुभाषित - ए त्रणज रत्नो छे. पण मूढ जनोए वृथा पाषाण - पत्थरने रत्न बनावेल ( रत्ननुं नाम आपेल छे. ४३ परवित्तव्ययं वीक्ष्य खिद्यते नीचजातयः । यवासको न किं शुष्या - द्वारि व्ययति वारिदे ४४ भावार्थ-नीच जनो बीजाना धननो व्यय थतो जोइने अंतरमां बहुज खेद पामे छे. मेघना पाणीनो व्यय थतो जोइन शुं जवासीओ सुकाइ जतो नथी ? अर्थात् सुकाइ जाय छे. ४४ पश्चाद्दत्तं परैर्दत्तं लभ्यते वा न लभ्यते । स्वहस्तेन च यद्दत्तं लभ्यते तन्न संशयः ॥ ४५ ॥ भावार्थ - मरण पछी आपवामां आवेल या तो बीजाओए जे आपेल ( दान करेल ) होय - तो तेनुं फळ प्राप्त थाय अथवा न पण थाय. पण पोताना हाथे जे दान करेल होय-तेनुं फल तो अवश्य मळेज छे. ४५ १७
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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