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________________ ( २५६ ) चेंद्रियरूप अश्वोने गुरुवाणीरूप चाबुकना प्रयोगथी चपलतारहित कर्या. ३९ प्रकृत्या निम्नगं वारि प्रकृत्या चंचलः कपिः। भवंति विषयासक्ताः प्रकृत्यैव शरीरिणः॥४॥ __ भावार्थ-पाणी स्वभावे जेम नीचे गमन करनार होय छे, अने वानर स्वभावे जेम चपळ होय छे, तेम प्राणीओ स्वभावथीज विषयासक्त होय छे. ४० पंचाश्रवाद्विरमणं पंचेंद्रियनिग्रहः कषायजयः। दंडत्रयविरति-श्चति संयमाः सप्तदश ॥४१॥ भावार्थ-पांच आश्रवोथी विराम पाम, पांच इंद्रियोनो निग्रह करवो, चार कषायोनो जय करवो अने त्रण दंडथी विरमवू-ए रीते संयमना सत्तर भेद थाय छे. ४१ प्रस्तावसदृशं वाक्यं सद्भावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जनाति स पंडितः ४२ भावार्थ-अवसरने उचित वाक्य, जे जाणे छे सद्भावने उचित प्रिय, जे जाणे अने आत्मशक्तिने उचित कोपने जे जाणे छे-ते पंडित समजवो. ४२
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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