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दायादाः स्पृहयंति तस्करगणा मुष्णांत भूमीभुजो दूरेणच्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् । अंभः प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरति ध्रुवं दुर्वृत्तास्तनया नयंति निधनं धिग्धिधनं तद्बहु ॥ ५१ ॥
भावार्थ - भागीदारो जेनो भाग मागवाने तत्पर थाय छे, तस्करो तथा राजाओ छळ जोइने जेनुं हरण करवा आवे छे, अग्नि, जेने क्षणवारमां भस्मीभूत करे छे, जळ जेने तरत प्रवाहमां घसडी जाय छे पृथ्वीमां जो दाटेल होय, तो यक्षो जेनुं हरण करी जाय छे अने दुराचारी पुत्रो जो जागे, तो जेने सदंतर नाश पमाडे छे - एवा बहु धनने पण वारंवारं धिक्कार थाओ. ५१
द्वाविमावभास क्षेप्यौ गाढं बध्वा गले शिलाम् । धनिनं चाप्रदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥ ५२ ॥ भावार्थ - दरिद्र छतां तप नहि करनार अने धन
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