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________________ ( ५ ) भावार्थ- सूर्य पण वारुणी ( पश्चिम दिशा ) ना योगे अस्त थाय छे, छतां बहु आश्चर्यनी वात छे के वारुणी (मदिरा) नो संग थया छतां हुं जीवतो छं. ११ अहो नीचरता नार्यो मक्षिकासख्यमिति । चंदनमिव प्रोत्सृज्य श्लेष्मणे स्पृहयंति याः ॥१२॥ भावार्थ - अहो ! नीच पुरुषोमां अनुरक्त एवी स्त्रीओ खरेखर मक्षिकाओ जेवी छे. कारण के जेओ चंदननो त्याग करीने श्लेष्म (लींटा ) उपर इच्छा राखे छे. १२ अंतः कचवराकीर्णे बहिश्च मसृणत्वचि । खरीपुरीषसंकाशे मा मुहः स्त्रीशरीरके ॥ १३ ॥ भावार्थ - हे जीव ! अंदर तो कचरा ( अशुचि ) - श्री व्याप्त अने बाह्य स्निग्ध (कोमळ ) त्वचायुक्त तथा गधेडानी लाड ( विष्टा ) समान एवा स्त्रीशरीरमां तुं मोह न पाम. १३ अदृश्यं भाग्यहीनाना - मस्पर्श्य सर्वपाप्मनाम् । संकरं सारविद्याना -मविद्यानां भयंकरम् ॥१४॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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