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________________ ( १२४ ) भावार्थ -- गुणीजननी पासे रहेतां गुणहीन पण लोकने पूज्य थाय छे. निर्मल नेत्रना प्रसंगथी काणी चक्षु पण अंजनने पामी शके छे. २ गुणा यत्र न पूज्यंते का तत्र गुणिनां गतिः । नमक्षपनकग्रामे रजकः किं करिष्यति ॥ ३ ॥ भावार्थ -- ज्यां गुणोनो अनादर थाय छे, त्यां गुणिजनो केम मान पामी शके ? वस्त्र विनाना लोकोना गाममां धोबी आवीने शंकरशे ? ३ गुणा गौरवमायांति न महत्योऽपि संपदः । पूर्णेदुः किं तथा वंद्यो निष्कलंको यथा कृशः॥ ४॥ भावार्थ -- गुणोज गौरव पामे छे, मोटी संपत्तिने मान मळतुं नथी. निष्कलंक अने कृश चंद्र वंद्य छे, पण पूर्ण चंद्रने कोइ नमतुं नथी. ४ गुणेष्वेवादरः कार्यः किमाटोपैः प्रयोजनम् । विक्रियते न घंटाभि र्गावः क्षीरविवर्जिताः ॥५॥ भावार्थ - - गुणोनोज आदर करवो, आडंबरनुं कंड प्रयोजन नथी. क्षीर विनानी गायी, कांइ घंट बांधवाथी वेचाती नथी. ५
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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