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(११७ ) त्याग करवो, देशनो बचाव थतो होय-तो गामनो त्याग करवो अने आत्माना बचावनी खातर समस्त पृथ्वीनो त्याग करवो. ७४ । क्षमातुल्यं तपो नास्ति न संतोषात्परं सुखम् । न तृष्णायाः परो व्याधि-न च धर्मो दयापरः॥७५
भावार्थ-क्षमा समान तप नथी, संतोष समान सुस मथी, तृष्णा समान कोई व्याधि बथी अचे दया समान कोई श्रेष्ठ धर्म नथी. ७५
कॉऽधो योऽकार्यरतः को बधिरो यःशृणोति न हितानि । को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति ।। ७६॥ ___ भावाथे-अंध कोण ? के जे अकार्य करवामां सदा तत्पर छे, बधिर (व्हेरो) कोण ? के जे हितवचन सांभळतो नथी अने मुंगो कोण ? के जे अवसर आये प्रियवचन बोली जाणतो नथी. ७६ केचिदज्ञानतो नष्टाः कोचिन्नष्टाः प्रमादतः। केचिज्ज्ञानाक्लपेन केचित्रष्टैस्तु नाशितागात