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प्रस्तावना आनन्द की बात है-पूजनीय श्रीचतुर्विधसंघ का करकमल आज 'स्याद्वादरहस्य' नामक सुंदर जैनन्याय के ग्रन्थ से सुशोभित हो रहा है ।
'स्याद्वादरहस्य' के प्रद्योतक है १८ वीं शताब्दी के ज्योतिर्धर श्रीमद् यशोविजय उपाध्याय । उपाध्याय जी ने कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरि विरचित 'वीतरागस्तोत्र' के अष्टम प्रकाश पर प्रथम एक संक्षिप्त विवरण लिखा । उसके बाद उसी को फिर से पल्लवित किया और अन्त में अनेक वादस्थलों का संग्रह करने के लिये पुनः तृतीय विवरण करना शुरू किया।
प्रथम संक्षिप्त विवरण १२ श्लोक पर होने से संपूर्ण है। द्वितीय विवरण जिसका प्रन्थ परिमाण प्रथम से अधिक हैं केवल ११ वा श्लोक के विवेचन के बाद १२ वे श्लोक का विवेचन के पहले अपूर्ण रह गया है । तृतीय विवरण ३ श्लोक के विवेचन के बाद अपूर्ण रह गया है फिर भी इन श्लोकों का विवेचन द्वितीयविवरणगत ३ श्लोक के विवेचनग्रन्थपरिमाण से अधिक हैं, इसलिये तृतीय विवरण को यहाँ 'बृहत्', द्वितीय को 'मध्यम' और प्रथम को 'लघु' ऐसी संज्ञाएँ दी गई हैं।
१-प्रतिपरिचयादि लघु 'स्याद्वादरहस्य' का उपाध्यायजी के स्वहस्ताक्षर वाला आदर्श आज अहमदाबाद देवशापाडा के उपाश्रय के भंडार में उपलब्ध हो रहा है। क्रमांकपत्र में उसका क्रमांक है ५९६२ । इसका लेखन वि. सं. १७०१ में मान्तरोली गांव में किया है । इसमें १३ पत्र हैं, प्रत्येक में २० से कम पंक्ति नहीं है केवल तेरहवे में द्वितीय पृष्ठ पर १६ पंक्ति के बाद ग्रन्थ समाप्ति है । अनेक पत्रों में हाँसीए में पाठ का प्रक्षेपण कीया है । छटे पत्र का द्वितीय पृष्ठ और सातवां का अग्रपृष्ठ चारों ओर से भर दिया है, जिससे कौनसा पाठ कहाँ बढाना यह शोधना विषय के ज्ञान के विना अति दुरुह बन गया है। उपाध्यायजो की स्वहस्तलिखितग्रन्थप्रति से जिन ग्रन्थों का पूर्व प्रकाशन हुआ है उसमें कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं जिसमें हासिआ में लिखा हुआ पाठ का उचित स्थान में निवेश न किया गया है जिससे अर्थ का अनर्थ हो गया है, उदाहरण के लिये नयरहस्य आदि ग्रन्थ देखिए । हमने हमारी मति के अनुसार विषय को समझकर उन प्रक्षेपों का उचित स्थान में निवेश करके सम्पादन किया है फिर भी कहीं त्रुटो दीख पडे तो उसके संमार्जन के लिये उपाध्याय जी के मूलादर्श को अवश्य देखने के लिये हमारी साग्रह विज्ञप्ति है । इसकी अन्य नकल आज कहीं भी उपलब्ध नहीं हो रही है।