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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अंगीकार किया—वह सब हमें कहिए।” काश्यप के इस अनुरोध से नरवाहनदत्त संकुचित हो उठे कि जो स्त्रियाँ प्रीतिवश उनपर अनुरक्त हुईं और प्रीति के कारण जिन्होंने उनका आहरण किया, उनकी कामकथा की बात गुरुजनों के समक्ष वे कैसे कह पायेंगे। इस संकट की घड़ी में नरवाहनदत्त ने अपनी अभीष्ट देवी पार्वती का स्मरण किया। महागौरी ने प्रत्यक्ष होकर उनसे कहा : “ऋषि, मामा, भार्याएँ, मित्र और राजा अवन्तिवर्द्धन–इनमें जिसके लिए जो बात उचित है, वही सुनेंगे, अन्य नहीं।” पार्वती के ऐसा कहने पर मानों सरस्वती ही नरवाहनदत्त के मुख में प्रखर होकर उनका विचित्र चरित्र सुनाने लगी।
___ परन्तु, 'वसुदेवहिण्डी' में वसुदेव अपनी कामकथाएँ भी अपने बेटों, पोतों और अन्य उपस्थित कुलकरों एवं यादवों के समक्ष निस्संकोच कहते चले गये हैं। स्पष्ट है कि ब्राह्मण-परम्परा की उक्त कथा में जिस शील, संकोच और मर्यादा का परिधि-बन्धन उपस्थित किया गया है, वह तद्विषयक श्रमण-परम्परा की कथा में दृष्टिगत नहीं होता। निश्चय ही, नरवाहनदत्त जहाँ अधिक मर्यादावादी हैं, वहाँ वसुदेव शठता और धृष्टता या उद्दण्डता से भी काम लेते हैं। नरवाहनदत्त जहाँ धीरललित नायक हैं, वहाँ वसुदेव धीरोद्धत। नरवाहनदत्त का व्यक्तित्व अधिकांशत: पारम्परिक है, किन्तु वसुदेव अधिकतर परम्परा को नया मोड़ देनेवाले, अतएव प्रगतिशील और विकासवादी मनोवृत्ति से सम्पन्न हैं। वसुदेव अपने हिण्डन की अवधि में प्राय: अज्ञातकुलशील होकर विचरण करते हैं और नरवाहनदत्त क्वचित्कदाचित् ही अज्ञातकुलशीलता से काम लेते हैं। नरवाहनदत्त अपनी प्रधानमहिषी मदनमंचुका के सहसा गायब हो जाने पर उसे खोजने के निमित्त भ्रमण करते हैं और उसी क्रम में उन्हें ऐश्वर्य तथा अनेक वधएँ उपलब्ध होती हैं। किन्त. वसदेव, अपने ज्येष्ठ भाई द्वारा घर से बाहर निकलने पर प्रतिबन्ध लगाये जाने के कारण ऊबकर (घर से) छलपूर्वक भाग निकलते हैं और श्मशान-स्थली में, स्वयं चिता में जल मरने की बात लिखकर दूर देश चले जाते हैं। और इस प्रकार, आत्ममृत्यु की मिथ्याकथा को प्रचारित करनेवाले वसुदेव को परिहिण्डन के लिए मिथ्यात्व का सहारा लेना पड़ता है। सत्ताईसवें रोहिणीलम्भ में रोहिणीस्वयंवर के प्रसंग में, परस्पर युद्ध करते समय, वसुदेव और उनके ज्येष्ठ भाई समुद्रविजय ने एक दूसरे को देखा और पहचाना । वहीं समुद्रविजय ने वसुदेव को व्यर्थ इधर-उधर न भटककर अपनी यथाप्राप्त वधुओं के साथ घर लौट आने का निर्देश दिया और इस प्रकार 'कोसला'-जनपद के रिष्टपुर में रोहिणी के पिता राजा रुधिर के राज्य में, वसुदेव के हिण्डन को पूर्ण विराम प्राप्त हुआ।
_ 'कथोत्पत्ति' आदि छह अधिकारों (प्रकरणों) में विभक्त 'वसुदेवहिण्डी' की मूलकथा ‘प्रतिमुख' से प्रारम्भ होती है और 'शरीर' प्रकरण में समाप्त हो जाती है। मूलत:, 'शरीर' ही कथा का मुख्य भाग है। छठा 'उपसंहार' तो अप्राप्य है और 'शरीर' का अन्तिम भाग भी लुप्त है, इसलिए अट्ठाईसवाँ 'देवकीलम्भ' अपूर्ण रह गया है।
प्रथम 'कथोत्पत्ति' अधिकार की कथावस्तु :
'वसुदेवहिण्डी' या 'वसुदेवचरित' की मूलकथा ईसा-पूर्व छठी शती में मगध-जनपद के राजगृह नगर की धरती पर कही गई थी। राजा श्रेणिक (बिम्बिसार) कथा के श्रद्धालु श्रोता बने थे और भगवान् महावीर प्रवक्ता । परवर्ती काल में , प्रधान गणधर सुधर्मास्वामी ने भगवान्