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________________ वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप जो वर्णन किया गया है, उसका अनुसरण करके सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी को 'वसुदेवचरित' का उपदेश किया है ।"(प्रस्तावना : पृ. १; कथोत्पत्ति : पृ. २) किन्तु, 'वसुदेवचरित' की अपर संज्ञा 'वसुदेवहिण्डी' की सार्थकता वसुदेव के भ्रमण-वृत्तान्त से सम्बन्ध रहने के कारण स्वत: स्पष्ट है । 'वसुदेवहिण्डी' के 'प्रतिमुख' प्रकरण में प्रद्युम्न और वसुदेव (दादा और पोता) के संवाद के माध्यम से वसुदेव के हिण्डन की अन्वर्थता का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। रुक्मिणी से उत्पन्न कृष्णपुत्र प्रद्युम्न ने वसुदेव से कहा : “सौ वर्षों तक परिभ्रमण करते हुए आपने मेरे लिए अनेक आजियाँ (दादियाँ) प्राप्त की । पर, परिभोग में लिप्त शाम्ब (रुक्मिणी से उत्पन्न, कृष्ण का ही दूसरा पुत्र) को देखिए । भानु (सुभानु : सत्यभामा से उत्पन कृष्णपुत्र) के लिए जो (एक सौ आठ) कन्याएँ एकत्र की गईं, वे ही उसे प्राप्त हो गईं।" इसपर वसुदेव ने गर्वपूर्वक प्रद्युम्न से कहा : “शाम्ब तो कूपमण्डूक की तरह सुख से प्राप्त भोग से ही सन्तुष्ट रहनेवाला है। लेकिन, मैंने पर्यटन करते हुए जो सुख-दुःख अनुभव किये, वह किसी दूसरे पुरुष के लिए दुष्कर है।" तदनन्तर, प्रद्युम्न ने प्रणतिपूर्वक वसुदेव से निवेदन किया : “पूज्य पितामह ! आपने जिस प्रकार हिण्डन किया, उसे कृपया बतलाइए । वसुदेव ने कहा : “मेरे लिए तुमसे विशिष्ट पौत्र कौन है? लेकिन, तुम मेरी हिण्डन-कथा को फिर दूसरों से कहोगे, तो वे मुझे फिर से सुनाने को बाध्य करेंगे। इसलिए, जिस-जिसको सुनने की इच्छा हो, उन सबको इकट्ठा करो, तब तुम्हारे समक्ष (मैं अपना भ्रमण-वृत्तान्त) कहूँगा।" वसुदेव की आज्ञा के अनुसार प्रद्युम्न ने प्रसन्नतापूर्वक कुलकरों, अक्रूर, अनाधृष्टि, सारणक आदि यादवगण तथा राम (बलराम), कृष्ण आदि सबको सादर निमन्त्रित किया। वे सभी प्रहर्षित मन से एकत्र हुए। विद्वानों के बीच बृहस्पति के समान वसुदेव ने प्रद्युम्न-प्रमुख उन (यादवों) के बीच विराजमान होकर धर्म, अर्थ काम का निष्पादक एवं लोक, वेद, काल (समयरूढि) और शास्त्र द्वारा अनुभूत अपना यात्रा-वृत्तान्त सुजनों के लिए श्रवणसुखद स्वर में सुनाना प्रारम्भ किया। 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' (सर्ग ४, श्लोक १-१३) में भी इसी प्रकार का प्रसंग है। नीलगिरि पर, काश्यप ऋषि के आश्रम में काश्यप के अतिरिक्त अन्य मुनि, राजा नरवाहनदत्त के मामा पालक, नरवाहनदत्त के मित्र और पलियाँ बैठी हैं। उनके बीच ही काश्यप ने नरवाहनदत्त से अनुरोध किया : “हे आयुष्मन् ! पालक-सहित हम तपस्वी आपकी कथा सुनने की उत्कण्ठा से स्थिरचित्त बैठे हैं। आपने जिस प्रकार यह दुर्लभ ऐश्वर्य प्राप्त किया और जिस रीति से इन वधुओं को १.“ततो (पज्जुण्णो) भणति-अज्जय ! तुब्भेहिं वाससयं परिभमंतेहिं अम्हं अज्जियाओ लद्धाओ । पस्सह संबस्स परिभोगे, सुभाणुस्सपिंडियाओ कण्णाओ ताओ संबस्स उवट्ठियाओ। वसुदेवेण भणिओ पज्जुण्णो-संबो कूवदद्दरो इव सुहागयभोगसंतुट्ठो। मया पुण परिब्भमंतेण जाणि सुहाणि दुक्खाणि वा अणुभूयाणि ताणि अण्णेन पुरिसेण दुक्कर होज्जन्ति चिंतेमि । ततो पणओ पज्जुण्णो विण्णवेइ-अज्जय ! कुणह मे पसायं, कहेह जहा हिंडिय त्थ । भणइ-कस्स वा कहेयव्वं? को वा मे तुमाए विसिट्ठो नत्तुओ? किं पुण तुमं सि अण्णेसिं साहितओ, तो मे पुणो बाहिहिंति ते; तो जस्स जस्स अस्थि इच्छा सोउं तं तं मेलावेहि । ततो तुमं पुरओ काऊण कहेहं । ततो तेण तुटेण कुलगरा अकूराऽणाहिट्ठि-सारणगणा य राम-केसवादी य निमंतिया। ते ते समेया सहाए पहट्ठमणसा ।तेसिंच मज्झगओवसुदेवो बहस्सती विव कोविदाणं पज्जुण्णपमुहाणं धम्म-ऽत्थकाम-लगवेद-समयदिट्ठ-सुता-ऽणुभूयं पकहिओ सुयणसवणणंदिणा सरेणं । सुणह-"-व. हिं., प्रतिमुख, पृ. ११०
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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