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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
नगरी में और संसारे में भी प्रियंगुसुन्दरी से बढ़कर कोई नहीं है, इस प्रकार वसुदेव मन-ही-मन गुनते रहे और यह भी सोचते रहे कि अतीत और भविष्य की पलियों से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, अब वह यहीं निवास करेंगे (अट्ठारहवाँ प्रियंगुसुन्दरी- लम्भ) ।
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[उन्नीसवाँ और बीसवाँ लम्भ अप्राप्य हैं ।]
वसुदेव मन में जैसा सोच रहे थे, वैसा हुआ नहीं। उसी समय उनके प्रति अनुराग रखने वाली पूर्वपत्नी प्रभावती, जो बाद में उनकी पत्नी बनी, वहाँ आई और उन्हें प्रियंगुसुन्दरी के पास से, सुवर्णपुरी में सोमश्री के पास ले गई । यद्यपि सुवर्णपुरी में वह प्रच्छन्न भाव से रहते थे, तथापि उनके प्रतिद्वन्द्वी मानसवेग ने उन्हें देख लिया और उन्हें बन्दी बना लिया । इसपर वेगवती (वसुदेव की विद्याधरी पत्नी) के आदमियों ने मानसवेग का विरोध किया। तब मानसवेग बोला : “इसने (वसुदेव ने) मेरी बहन को विना मेरी अनुमति के अपनी पत्नी बना लिया है।” वसुदेव ने मानसवेग पर आरोप लगाया : “तुमने मेरी पत्नी सोमश्री का अपहरण कर लिया है।" मानसवेग ने सफाई दी : “वह तो मुझे ही पहले दी गई थी । तुमने तो बलपूर्वक उसे हथिया लिया है । इसके लिए न्यायिक निर्णय हो जाय।”
न्यायिक निर्णय के लिए मानसवेग और उसके पक्षपाती अंगारक, हेफ्फग और नीलकण्ठ के साथ वसुदेव का युद्ध प्रारम्भ हुआ । प्रभावती से प्राप्त प्रज्ञप्तिविद्या द्वारा वसुदेव ने सपरिवार उन चारों प्रतिपक्षियों को पराजित कर दिया। मानसवेग की माता वसुदेव से पुत्र की प्राणरक्षा की भीख माँगने लगी। सोमश्री की, मानसवेग के रुधिर से स्नान की प्रतिज्ञा पूरी करने के निमित्त वसुदेव ने उसे (मानसवेग को) लोहूलुहान करके छोड़ दिया। इस प्रकार, पराजित मानसवेग किंकर की भाँति विनम्र भाव से वसुदेव की सेवा करने लगा। फिर एक दिन सोमश्री के कथनानुसार वसुदेव मानसवेग द्वारा विकुर्वित विमान से सोमश्री साथ महापुर लौट गये ।
एक दिन वसुदेव घुड़सवारी कर रहे थे कि हेफ्फग ने उनका अपहरण कर लिया । आकाशमार्ग से कुछ दूर जाने पर वसुदेव ने हेफ्फग की पीठ पर तीव्र आघात किया । फलतः, हेफ्फग ने उन्हें छोड़ दिया और वह बहुत बड़े हृद में आ गिरे । ह्रद से निकलकर जब वह सम भूभाग पर आये, तब पार्श्वस्थित छिन्नकटक पर्वत से दो चारणश्रमण तीव्रगति से पक्षी की भाँति उड़ते हुए नीचे उतरे । वसुदेव उनके साथ एक आश्रम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने श्रमणों से शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ आदि तीर्थंकरों के चरित सुने ।
उसी क्रम में वसुदेव ने वसन्तपुर के राजा जितशत्रु की रानी और जरासन्ध की पुत्री इन्द्रसेना की चिकित्सा करके उसे पिशाच के आवेश से मुक्त किया। तब राजा जितशत्रु ने प्रसन्न होकर वसुदेव के साथ अपनी बहन केतुमती का शुभ मुहूर्त में विवाह करा दिया । केतुमती के जिज्ञासा करने पर वसुदेव ने उसे शौरिपुर से अपने निष्क्रमण की कहानी सुना दी। फिर, एक दिन जरासन्ध के आमन्त्रण पर उसके द्वारा प्रेषित दूत के साथ वसुदेव राजगृह के लिए प्रस्थित हुए (इक्कीसवाँ केतुमती - लम्भ) ।
अपने कार्यसाधन में तत्पर दूत हृदयहारी वचनों से वसुदेव को यात्रा के लिए प्रेरित करता रहा। राजा जितशत्रु के द्वारा दिये गये योद्धाओं, भृत्यों और सैन्यों से घिरे हुए वसुदेव दूत के