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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
वसुदेव ने सोचा : "मुझे जिससे वर माँगना चाहिए, वह स्वयं मुझसे माँग रही है। इसलिए, अवश्य ही मेरी विद्या सिद्ध हो गई।” वसुदेव ने उस युवती से कहा: “ अवश्य वर दूँगा।” युवती प्रसन्न हो गई और वसुदेव को उठाकर आकाशमार्ग से ले चली ।
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क्षणभर में ही वह उन्हें एक पर्वत-शिखर पर ले गई और वहाँ उसने उन्हें अशोकवृक्ष के नीचे एक समतल चट्टान पर रखा। उसके बाद 'आप घबरायें नहीं' कहकर वह चली गई। तभी क्षणभर में दो रूपवान् युवा पुरुष वहाँ आये। उन्होंने 'दधिमुख' तथा 'चण्डवेग' के नाम से अपना-अपना परिचय देकर वसुदेव को प्रणाम किया । क्षणभर में वह परिव्राजक ( विद्याधर) भी आ गया और 'मैं दण्डवेग हूँ' कहकर उसने भी वसुदेव को प्रणाम किया ।
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उन विद्याधरों ने वसुदेव को एक दूसरे पहाड़ के ऊपर पहुँचा दिया । वहाँ सैकड़ों भवनों युक्त नगर था । वसुदेव ने उस नगर के राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ उनकी अर्घ्यपूजा की गई और उन्हें मंगलस्नान कराया गया । उत्तम वस्त्र पहनने को दिये गये और परम स्वादिष्ठ भोजन क़राया गया । उसके बाद वह रेशम की तरह मुलायम बिछावनवाले पलंग पर बैठे, फिर सुखपूर्वक सो गये ।
सुबह होने पर वसुदेव को दूल्हे के वेश में सजाया गया और फिर शुभ मुहूर्त में दधिमुख ने प्रसन्न होकर अपनी बहन मदनवेगा के साथ वसुदेव का विवाह करा दिया और दहेज में अपार सम्पत्ति और परिचारिकाएँ प्रदान कीं। देववधू के साथ देवकुमार के समान वसुदेव मदनवेगा के साथ विविध भोगों का सेवन करने लगे और विद्याधर उनकी सेवा में संलग्न रहने लगे ।
दधिमुख ने मदनवेगा के परिचय के क्रम में बताया कि अरिंजयपुर के राजा विभीषण के वंश में विद्युद्वेग नाम का राजा हुआ। उसकी रानी विद्युज्जिह्वा थी । उसके दधिमुख, दण्डवेग और चण्डवेग नाम के तीन पुत्र हुए और मदनवेगा उसकी पुत्री हुई। एक बार राजा विद्युद्वेग ने वाक्सिद्ध ज्योतिषी से मदनवेगा के विषय में पूछा, तब ज्योतिषियों ने विचार कर कहा कि यह कन्या अर्द्ध भरत के अधिपति के पिता की अतिशय प्रिय पत्नी बनेगी और पुत्ररत्न को जन्म देगी। उनकी पहचान के सम्बन्ध में ज्योतिषी ने राजा से कहा कि विद्या की साधना करते समय आपके पुत्र दण्डवेग की पीठ पर जो आ गिरेगा और जिसकी महानुभावता से दण्डवेग की विद्या तत्क्षण सिद्ध हो जायगी, वही वह महापुरुष होगा ।
क्रम से मदनवेगाने गर्भ धारण किया। गर्भ की शोभा से उसके शरीर की लुनाई बढ़ गई । वसन्त में कुसुमित चम्पकलता की भाँति वह मदनवेगा जब वसुदेव के सामने आई, तब उन्होंने उसे भ्रमवश 'वेगवती' नाम से सम्बोधित किया। इसपर मदनवेगा रूठकर चली गई और वसुदेव उसके मनाने का उपाय सोचने लगे (चौदहवाँ मदनवेगा-लम्भ) ।
क्षणभर में फिर मदनवेगा प्रसन्न मुँह लिये लौट आई। इसी समय महल में हल्ला हुआ । वसुदेव हड़बड़ाकर उठे, देखते हैं कि महल जल रहा है ! इसी कोलाहल की घड़ी में वह मदनवेगा (जो वस्तुतः प्रच्छन्न शूर्पणखी वसुदेव को साथ लेकर आकाश में उड़ गई और कुछ दूर ले जाकर उन्हें छोड़ देना चाहा। तभी उन्होंने देखा कि मानसवेग उन्हें पकड़ना चाह रहा है। तब मदनवेगा (शूर्पणखी) ने वसुदेव को छोड़ दिया और वह मानसवेग पर प्रहार करने लगी । मानसवेग भाग गया। आकाश में चक्कर खाते हुए वसुदेव मगध-जनपद के राजगृह नगर में पुआल की