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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
चम्पापुरी लौटने के बाद गन्धर्वदत्ता वासघर में जाकर बिछावन पर पड़ गई और व्यंग्यमिश्रत स्वर में वसुदेव से बोली : “आपने चण्डालकन्या देख ली और वह बुढ़िया भी ? कमलवन में हंस का मन क्या नहीं रमता ?” वसुदेव ने शपथपूर्वक गन्धर्वदत्ता से कहा : "मैंने तो विशेषकर नृत्य देखा और गीत सुना । मातंगी मैंने नहीं देखी।” इस प्रकार, मान-मनौवल में ही उनकी वह रात बीत गई (तीसरा गन्धर्वदत्ता - लम्भ) ।
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सुबह होने पर सभागृह में बैठे वसुदेव के समक्ष उक्त मातंगवृद्धा आई और उसने मातंगकन्या नीलयशा को उन्हें अर्पित कर देने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। वसुदेव ने जब असमानगोत्रता की चर्चा करते हुए नीलयशा को स्वीकार करने से इनकार किया, तब मातंगवृद्धा ने विस्तार से अपनी वंशकथा सुनाते हुए यह सिद्ध किया कि वह जैनधर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के वंश की हैं और क्रीड़ावश विद्या के अधीन होकर ही नीलयशा मातंगवेश में रहती है। फिर भी, वसुदेव ने नीलयशा को स्वीकारने में अपनी असमर्थता दिखलाई ।
तब, मातंगवृद्धा द्वारा प्रेरित वेताल, रात में, वसुदेव को उठाकर श्मशानगृह में ले आया । वहाँ मातंगवृद्धा बैठी हुई कुछ बुदबुदा रही । वह उन्हें वहाँ से वैताढ्य पर्वत पर ले चली । रास्ते में वसुदेव ने एक व्यक्ति को धतूरे का धुआँ पीते हुए देखकर मातंगवृद्धा से जिज्ञासा की, तो उसने कहा कि "यह अंगारक है। विद्याभ्रष्ट हो जाने के कारण फिर से विद्या की साधना कर रहा है। आप जैसे श्रेष्ठ पुरुष दर्शन से उसकी विद्या सिद्ध होगी।" तब, वसुदेव ने अंगारक से दूर रहने की ही इच्छा प्रकट की; क्योंकि वह उनकी पूर्वपत्नी श्यामली का उत्पीडक था और उसने उन्हें भी कुएँ में फेंक दिया था । वसुदेव की इच्छा के अनुसार, मातंगवृद्धा उससे अलग हटकर चलती हुई उन्हें वैताढ्य पर्वत की प्रमुख श्रेणी नीलगिरि पर ले आई और एक उद्यान में रखकर चली गई । वहाँ उपस्थित लोग वसुदेव के रूपातिशय को देखकर विस्मित हो उठे ।
नीशा के पिता सिंहदंष्ट्र ने वसुदेव का विपुल स्वागत किया और शुभ मुहूर्त में नीलयशा के साथ उनका विवाह कर दिया । वसुदेव निरुद्विग्न भाव से प्रिया नीलयशा के साथ पंचविध विषयसुख के समुद्र में अवगाहन करने लगे ।
एक दिन वसुदेव, नीलयशा के परामर्श से, विद्याधरों की विद्या सीखने के निमित्त वैताढ्य पर्वत पर अपनी प्रिया के साथ घूमने लगे, तभी एक मयूरशावक ने छल से नीलयशा का अपहरण कर लिया । वस्तुतः वह मयूरशावक छद्मवेष में नीलकुमार विद्याधर का पुत्र नीलकण्ठ था, जो
यशा का पूर्वप्रेमी था । नीलयशा के पिता सिंहदष्ट्र ने उसे नीलयशा के साथ विवाह का वचन दे रखा था । किन्तु बृहस्पतिशर्मा नाम के ज्योतिषी ने सिंहदष्ट्र को बताया था कि नीलयशा अर्द्ध भरत के स्वामी (कृष्ण) के पिता की पत्नी होगी, जो अभी चम्पानगरी में चारुदत्त सेठ के घर में हैं। वह वहाँ के विशिष्ट सांस्कृतिक उत्सव महासरोवर की यात्रा के अवसर पर दिखाई पड़ेंगे।
नीलयशा के अपहरण के बाद दुःखी वसुदेव उसी पार्वत्य वनप्रदेश में हिण्डन करने लगे (चौथा नीलयशा- लम्भ) ।
जंगल में भटकते हुए सुदेव एक दिशा की ओर चल पड़े। रास्ते में उनके दमकते रूप को देखकर कुछ ग्वालों ने उन्हें घेर लिया और वे उनसे पूछने लगे : “तुम इन्द्रों में कौन-सा इन्द्र हो ? सच-सच बताओ ।” वसुदेव ने अपने परिचय को छिपाकर कहा: “मैं मनुष्य हूँ । तुम डरो