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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप तुम्हें जाने से रोकते हैं, तो उससे तुम्हारा क्या बनता-बिगड़ता है? तुम स्वयं जाओ और गन्धर्वदत्ता को पराजित करो।"
वसुदेव, सेठ चारुदत्त की संगीत-सभा में पहुँचे। सुग्रीव ने सभा में वसुदेव को उपस्थित देखा, तो शंकित होकर कहा कि “मेरे पास मत आओ।" वसुदेव सभा में आगे बढ़ते गये। सभा का सनिवेश देखकर वसुदेव ने कहा : “विद्याधरलोक में ही इस प्रकार का सभागार दृष्टिगत होता है।" वसुदेव की इस उक्ति पर, सेठ ने उन्हें गौर से देखते हुए, अपना सन्तोष प्रकट किया और बैठने के लिए आसन दिया। सभा में उन्होंने चित्रकला तथा वीणा-विषयक विशेषज्ञता का प्रदर्शन करके सभासदों को चमत्कृत कर दिया।
वसुदेव ने उस संगीत-सभा में घोषवती (सप्ततन्त्री) वीणा बजाई और मनुष्यदुर्लभ विष्णुगीत भी गाकर सुनाया। गन्धर्वदत्ता,जो सभा में परदे के पीछे बैठी थी,सामने मंच पर आई । वसुदेवने उसके साथ संगीत और वाद्य की इतनी दक्षता से संगति की कि सभी ‘वाह ! वाह !' करने लगे। प्रतिज्ञानुसार गन्धर्वदत्ता ने वसुदेव को पति के रूप में वरण कर लिया। गन्धर्वदत्ता की दो सखियाँ-श्यामा और विजया भी (पूर्वोक्त श्यामा और विजया से भिन्न : सुग्रीव और यशोग्रीव की पुत्रियाँ) अपने-अपने पिता की अनुमति से वसुदेव की अंकशायिनी बनीं। वह अपनी इन तीनों पलियों के साथ रतिसुख प्राप्त करने लगे।
एक दिन सेठ चारुदत्त ने अपनी रोचक और रोमांचक आत्मकथा सुनाते हुए वसुदेव से बताया कि गन्धर्वदत्ता वस्तुतः मेरी औरस पुत्री नहीं, अपितु पालिता विद्याधर-कन्या है। यह अमितगति विद्याधर की पुत्री है। ज्योतिषी ने इसके बारे में इसके पिता से बताया था कि “यह लड़की श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी होगी और वह श्रेष्ठ पुरुष विद्याधर-सहित दक्षिण भारत का राज्य करेगा। वही पुरुष चम्पापुरी में चारुदत्त सेठ के घर में स्थित इस लड़की को संगीत के द्वारा पराजित करेगा। भानु (दत्त) सेठ का पुत्र चारुदत्त कारणवश यहाँ आयगा। उससे भेंट होने पर यह लड़की उसे सौंप देना।" इसलिए, ज्योतिषी के निर्देशानुसार ही गन्धर्वदत्ता आपको समर्पित की गई है। ____ऋतुराज वसन्त का आगमन हुआ। एक दिन वसुदेव गन्धर्वदत्ता के साथ सुरवन (चम्पानगर के पार्थवर्ती महासरोवर के निकटस्थ वन) की यात्रा पर निकले। पूरा नगर उनके रथ को घेरकर चल रहा था। वसुदेव रथ से उतरकर महासरोवर के तट पर स्थित भगवान् वासुपूज्य के मन्दिर में गये। वहाँ गन्धर्वदत्ता-सहित उन्होंने भगवान् वासुपूज्य की वन्दना की, फिर पहले से ही सजे-सजाये आसन पर बैठे। विश्राम के बाद परिजनों के साथ विधिवत् भोजन-पान हुआ। तदनन्तर, वसुदेव वसन्त की शोभा देखने लगे और अपनी पत्नी को भी दिखाने लगे।
उसी क्रम में वसुदेव को वहाँ एक चण्डालकुल दिखाई पड़ा। वसुदेव के स्वागत में मातंगवृद्धा के आदेश से नीलयशा नाम की मातंगकन्या ने अपना नृत्य प्रस्तुत किया। चण्डालकन्या नृत्य के क्रम में जब आँखों का संचार करती, तब दिशाएँ जैसे कुमुदमय हो जातीं। उसके हाथों की भंगिमा साक्षात् कमलपुष्प की कान्ति बिखेरती और क्रम से जब वह अपने पैरों को उठाकर नाचती, तब उत्तम सारसी की भाँति उसकी शोभा अतिशय मोहक हो उठती। वसुदेव नीलयशा के नृत्य से विस्मय-विमुग्ध हो उठे।