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________________ ५९२ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा वइसाह (६९.१९) : वैशाख (सं.), तलवार की (विशाखा नक्षत्र के आकार की भाँति) मूठ। वगह्रद (२१५.२९) : वकहद (सं.); हृदविशेष, जहाँ शल्यक्रिया से उत्पन्न घाव भरनेवाली संरोहिणी ओषधि पाई जाती है। कथाकार ने कई अद्भुत हृदों का उल्लेख किया है, जिनमें 'वकहद' का भी उल्लेखनीय महत्त्व है। क्तव्यय (९०.४) : वर्तव्यक (सं.), प्रसंगानुसार अर्थ' : वंशवद; अधीन। मूलपाठ : वम्महक्त्तव्वयं = मन्मथ (कामदेव) के अधीन। अन्यत्र एक स्थल पर (३०९.१) कथाकार ने निन्दित वचन के अर्थ में भी इसका प्रयोग किया है। मूलपाठ है : 'फरुससालाए क्त्तव्वयं भासिऊण गतो पुरिसपुरं।' वत्थं णियत्था (३७.१२) : वस्त्र पहने हुई । परिधान के अर्थ में 'णियत्था' देशी शब्द है। वदणवारी (३६५.१९) : यह शब्द भी कथाकार के प्रयोग-वैचित्र्य का उदाहरण है। 'वदण' को यदि 'वयण' या 'वयणिज्ज' के समानान्तर मानें, तो इसका अर्थ होगा : लोकापवाद या निन्दा। 'वारी' का अर्थ रोकनेवाला स्पष्ट है। प्रसंगानुसार : वसुदेव नहीं चाहते थे कि वह अपने ज्येष्ठ भाई समुद्रविजय से लड़ें। इसलिए, भाई-भाई में युद्ध के लोकापवाद को रोकने के लिए उन्होंने अपने नाम से अंकित बाण समुद्रविजय के पादमूल में निक्षिप्त किया था। इस प्रकार, 'सर' का विशेषण ‘वदणवारी' का अर्थ होगा : (भ्रातृयुद्ध के) लोकापवाद को रोकनेवाला। वयकर (१५१.२८) : व्यतिकर (सं.); संयुजन; परस्पर मिलन (सम्भोग की इच्छा से)। वरता (९९.६) : वरत्रा (सं.), रस्सी; डोरी; बरती (लोकभाषा)। वलंजेति (२५७.७) : यहाँ 'वल्' धातु से निष्पन्न क्रिया का प्रयोग-वैचित्र्य द्रष्टव्य है। व्यापार के लिए वणिकों द्वारा यातायात करने के अर्थ में यह क्रिया प्रयुक्त हुई है। संस्कृत-रूप 'वलन्ति' सम्भव है। वल्लव (३५५.४) : प्रसंगानुसार, 'वल्लव' का त्रिवली अर्थ सम्भावित है। प्रो. साण्डेसरा ने भी 'वसुदेवहिण्डी' के गुजराती-अनुवाद में अनुमान से ही 'वल्लव' का त्रिवली अर्थ किया है। डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने अपने अँगरेजी-अनुवाद में प्रो. साण्डेसरा का ही साक्ष्य प्रस्तुत किया है। बुधस्वामी ने भी 'वल्लव' शब्द का उल्लेख किया है, किन्तु वह रसोइया की संज्ञा में रूढ है। 'वसुदेवहिण्डी' का मूलपाठ है : 'वल्लवविहत्तकंतमझा' (भद्रमित्रा का नखशिख-वर्णन)। वसिऊण (९७.३०) : उषित्वा (सं.), प्रसंगानुसार अर्थ : कामक्रीडा करके; सहवास करके। वाओ अग्गिय (२५१.१६) : वातोदनित (सं.); वायु से उत्कम्पित या ऊपर उठा हुआ। वातिग (२०१.२५) : वाचिक (सं.); विद्वान्; पठित; वाक्शक्तिसम्पन्न । ('च' का 'त'।) वारवर (३३६.७) : बारम्बार (सं.); बार-बार । ('बराबर' अर्थ भी सम्भव है।)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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