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कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द
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खलिण (६६.२९) : खलिन (सं.); लगाम। खामो कालो (६२.१५) : क्षाम: काल: (सं.), क्षीण समय; अकाल; अभाव का समय;
कड़की का दिन। खारक (१२३.१४) : क्षारक (सं.) भुजपरिसर्प की एक जाति; भुजाओं से रेंगनेवाली
सर्पजाति। खुड्डय : खुडग (७२.१०) : [देशी]; अंगूठी; छोटा साधु (क्षुद्रक)। खेमवट्टमाणी (१४६.६) : क्षेमवर्तमानी (सं.), कुशल-समाचार ।
[ग] गणिया : गणियारी (७०.१७) : मूल प्रसंग से 'गण्यिा' का अर्थ हाथी का झुण्ड प्रतीत
होता है और 'गणियारी' का 'महावत' या 'पीलवान'। 'गणियारी' का संस्कृत-रूप 'गणचारी' माना जाय, तो हाथी के झुण्ड को चरानेवाला या संचालित करनेवाला अर्थ सम्भव है। पालि में अनेक शिष्यों के शिक्षक को 'गणाचरिय' कहा गया है। जैन साधु 'गणी' शब्द से संज्ञित होते हैं, जिसका अर्थ है : गण का पति, जिसके अनेक अनुस" हों । जैसे : 'वसुदेवहिण्डी' के लेखक संघदासगणी या श्वेताम्बरों के वर्तमान धर्माचार्य आचार्यश्री तुलसी
गणी। गमेइ(५६.२६) : गमयति (सं.) = बोधयति । मूलपाठः ‘कमलसेणा विमलसेणं गमेइ' =
कमलसेना विमलसेना को समझाती है। गयमय (३३६.४) : गतमृत (सं.) भूत-प्रेत । यह देशी शब्द है। गयवज्जमझो (१६२.४) : ग्रैवेयकमध्य: (सं.), जिसके शरीर का मध्यभाग अवेयक के
समान है। यों, ग्रैवेयक का सामान्य अर्थ ग्रीवा (गले) का आभूषण है। किन्तु, कथाकार का संकेत उस विशिष्ट आभूषण या गजमुक्ता (गजवज्र) की ओर प्रतीत होता है, जिसका मध्यभाग पतला रहता है। अर्थात्, प्रसंगानुसार
ऋषभस्वामी के शरीर का मध्यभाग (कमर) पतला था। गवलगुलिय (२६५.८) : गवलगुलिक (सं.) भैंस का सींग और अंजनगुटिका (गुलिय =
गुटिका) के समान (नीले आकाश का उपमान)। गामउड (२९५.१७) : ग्रामकूट (सं.), ग्रामणी; मुखिया। 'गामणी गामउडो, गामगोहो गोहो
एते चत्वारोऽपि ग्रामप्रधानार्थाः ।'- 'देशीनाममाला' (२.८९) गालेमि (२४६.१६) : गालयामि (सं.), नाश करता हूँ। [गालय धातु); 'गालन' और भी
कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे : छानना; गालना; निचोड़ना; अतिक्रमण
करना; उल्लंघन करना आदि। गोज (३६४.१९) : [देशी] गवैया; ढोलकिया।