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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
आवस्य (२८१.३) : आपाश्रय (सं.), उठगने का आधार ( तकिया, मसनद आदि) । मूलपाठ : 'सावस्सए आसणे' = आधार सहित आसन पर ।
आवासन्ति (२२१.५) : आदृश्यन्ते (सं.) ; [ आ + वास < पास < दृश् : भाववाच्य]; दिखाई पड़ते हैं । मूलपाठ : 'एयाओ पासायपंतीओ आवासन्ति ।'
आसण्णगिहे (१३३.८) : आसन्नगृहे (सं.), बैठके में ।
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आसायण (६७.१७) : आशातन (सं.); नियन्त्रित; वशवर्त्ती ( तिरस्कार या अपमान के अर्थ में भी यह शब्द प्रचलित है) ।
आसासेंता (५५.७) : ‘आसिञ्चन्' (सं.) का यह कथाकार प्रयुक्त प्राकृत रूप है। मूलपाठ है: 'पच्छापउरदाणसलिलेणं भूमि आसासेंतो' = झरते हुए प्रचुर मदजल से धरती को सींचता हुआ (हाथी) ।
आसुक्कार (७५.२५) : आशुकार (सं.), शीघ्र मार डालनेवाला रोग; विसूचिका आदि महामारी |
आसुत (७५.१४) : आशुरुप्त (सं.); शीघ्र क्रुद्धः अतिकुपित ।
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इरिया (२४.१९) : ईर्ष्या (सं.), केवल शरीर से होनेवाली क्रिया (गतिक्रिया) ।
इओ वोलंतेहिं (१४३.११) : इतो गच्छद्भिः (सं.), क्रियादेश के नियमानुसार, गम् धातु का 'वोल्' आदेश । अर्थ : इधर से जाते हुए, गुजरते हुए ।
[ उ, ऊ]
उक्कायंत (६५.७) : उत्क्रम्यमाण (सं.), झड़ते हुए (फूल)।
उच्चावग (१७४.९) : उच्च्यावक (सं.), कथाकार ने धूर्त, वंचक आदि के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है । कदाचित् हिन्दी का 'उचक्का' शब्द इसी से विकसित - हुआ है।
उच्चोली (१४८.१०) : [ देशी ]; झोली; पोटली; थैली ।
उत्थइय (७७.२१) : अवस्तृत (सं.); व्याप्त ।
उद्धया (३३.१९) : उद्धूता (सं.), गर्वोन्नत; ऊपर उठी हुई ।
उपज (१११.१९) : उत्पिंजल (सं.), १. व्याकुल; अतिशय आकुल; २. देवता के आकाश से उतरने के समय की प्रकाशधूसर स्थिति या वातावरण ।
उलएइ (६६.१४) : उपलागयति (सं.); मूलपाठ: 'उरे उलएइ' = फूल की माला कण्ठ में पहना देती है।
उलुग्गसरीरो (२९४.२) : अवरुग्णशरीरः (सं.), बीमार; रुग्ण शरीरवाला; भग्न; नष्ट; त्रुटित । पालि में भी जर्जर या खण्ड-खण्ड होने के अर्थ में 'ओलुग्ग' शब्द का प्रयोग हुआ है (द्र. 'पालि-हिन्दीकोश': भदन्त आनन्द कौशल्यायन) ।