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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप वसुदेव। चक्रवर्ती वसुदेव बड़े विलक्षण स्वाभिमानी और अपराजेय वीर योद्धा थे। वह सत्रह सागरोपम काल तक स्वर्ग में रहने के बाद मनुष्य-योनि में च्युत हुए थे। उन्हें सारा विद्याएँ अधिगत थीं। वह चित्रकारिता, संगीत, नृत्य, पुष्पसज्जा, कामक्रीड़ा आदि विभिन्न ललित कलाओं में आचार्य थे, साथ ही चिकित्साशास्त्र के भी मर्मज्ञ थे। आर्हत धर्म-दर्शन और बार्हत वेद-वेदांग के तो पारगामी विद्वान् थे, अथच व्याकरण, छन्द आदि शास्त्रों के भी महापण्डित थे। लोकसेवा और लोकोद्धार ही उनका जीवन-व्रत था।
शलाकापुरुषों में परिगणनीय वसुदेव का रूप अद्भुत था। उनका अंग-प्रत्यंग अंगलक्षण या अंगविद्या के विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित लक्षणों से सम्पन्न था। उनका रूप-वर्णन करते हुए संघदासगणिवाचक ने लिखा है कि वसुदेव की अंगशोभा ऐसी थी कि लोकदृष्टि उसका भोग करने लगती थी; उनके शरीर पर, उनका, मुकुट पहनने योग्य मस्तक छत्र की भाँति विराजता था; उनके काले-काले दक्षिणावर्त (दाई ओर से घुघराले) केश बड़े चिकने थे । मुँह शरद् ऋतु के पूर्ण चन्द्र को भी शरमा देता था; ललाट का पटल ठीक अर्द्धचन्द्र की तरह लगता था; सूर्य की किरणों से विकसित कमल जैसी उनकी आँखें मन मोह लेती थीं; उनकी नाक तो बेहद सुन्दर थी; दोनों होंठ वीरवधूटी (इन्द्रगोप) और मूंगे के समान बिलकुल लाल थे; नई कोंपल जैसी लपलपाती लाल जीभ साँप की जीभ के समान लगती थी; उनके मुँह में दाँत की पंक्ति कमल के बीच छिपी कुन्दकली की माला (पंक्ति) के समान शोभा बिखेरती थी; कानों में लटकते कुण्डलों की कमनीयता मन को रमाने लगती थी, उनका दाढ़ा बहुत विशाल था; शंख जैसी गरदन में तीन रेखाएँ पड़ी रहती थीं; उनका वक्षःस्थल श्रेष्ठमणि की चट्टान के समान था; हाथ के पहुँचे या कलाई और केहुनी के बीच के हिस्से का रचाव बड़ा प्रशस्त था; नगरद्वार की लौह-अर्गला जैसी लम्बी और सुदृढ़ भुजाएँ देखते ही बनती थीं; उनकी हथेलियाँ बड़ी पुष्ट और शुभलक्षणोंवाली थीं; उनकी कमर मन को मुग्ध करनेवाली, (नाभि के गिर्द) रोमराजि से रंजित तथा अँगुलियों की पकड़ में आने लायक थी; नाभि खिलते कमल के समान थी; कटिभाग उत्तम घोड़े के कटिभाग के समान वर्तुलाकार था; घुटने और टखने के बीच का भाग (जंघा) हाथी की सूंड़ के समान रमणीय और स्थिर था; घुटने की हड्डी उभरी हुई न होकर मांसलता से आवृत थी, हिरन की जैसी जाँघे थीं; उनके कूर्माकृति पैर चलते समय धरती से चिपके से लगते थे, जिसके तलवे में शंख, चक्र और छत्र अंकित थे । दर्पदीप्त वृषभ के समान वह बड़ी ललित गति में चलते थे; उनकी, उत्तम अर्थ और स्वर की गूंज या घुलावटवाली वाणी को सुनकर कान को सुख मिलता था। इस प्रकार, उनकी शारीरिक संरचना ही कह देती थी कि इस महापुरुष में सम्पूर्ण महीतल के पालन की क्षमता निहित है (पद्मालम्भ :पृ. २०४)।
अन्यत्र भी संघदासगणी ने वसुदेव के अपूर्व रूप के वर्णन में उनकी महानुभागता को सूचित करनेवाली अलौकिक आंगिक संरचना की ओर संकेत किया है । वहाँ भी उनके मुकुटभाजन मस्तक को छत्राकार और मुख को पूर्णचन्द्र की छवि को हर लेनेवाला कहा गया है । आँखें श्वेत पुण्डरीक के समान थीं; फणधर के फण के समान उनकी भुजाएँ थीं; अतिशय शोभाशाली वक्षःस्थल नगरद्वार के बृहत् कपाट के समान था; शरीर का मध्यभाग वज्र के समान था; नाभि कमलकोष के समान थी; उनकी कटि के समक्ष केसरी की कटि उपहासास्पद लगती थी; दोनों ऊरु (घुटने और टखने के बीच का भाग) हस्तिशावक के मृदुल शुण्डादण्ड की तरह भासित होते थे; जाँघों की संरचना कुरुविन्द (मणि-विशेष) के समान गोल, चिकनी और चमकदार थी; दोनों पैर तो शुभ लक्षणों के आगार ही थे । इस प्रकार की