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________________ ५६८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा होने पर उसका उचित प्रायश्चित्त भोगते हुए दिखाया गया है। निष्कर्ष यह कि वैदिक परम्परा में एक की कार्य-कारण-शृंखला दूसरे के द्वारा प्रदत्त शाप और वरदान के आधार पर अवलम्बित है, और श्रमण-परम्परा में स्वकृत पाप-पुण्य पर । स्वकृत पुण्य-पाप के फलभोग का सिद्धान्त जैन विचारधारा को दैववादी वैदिक धारा से सर्वदा पृथक् सिद्ध करता है। - इसके अतिरिक्त, ब्राह्मण-परम्परा में ईश्वर-कर्तृत्व को वैयक्तिक कर्मफल-भोग से जोड़ा गया है, किन्तु जैन परम्परा में मानव के स्वकृत कर्म की. ही प्रधानता का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ईश्वर-कर्तृत्व का कोई स्थान नहीं है। कर्मफल की शृंखला प्रत्येक जीव के साथ अनादि काल से चल रही है और यह तबतक चलती रहेगी, जबतक जीव सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-रूप रत्नत्रय की प्राप्ति द्वारा नये कर्मबन्ध को रोककर संचित कर्मों की निर्जरा नहीं कर डालता। कर्मों का निर्जरा (निर्मूलन) से ही जीव परमात्मत्व को प्राप्त करता है, जो अनन्तज्ञानसुखात्मक है। परमात्मत्व की प्राप्ति ही मोक्ष है और वही जीव का परम लक्ष्य है। कर्मानुबन्ध के आधार पर जीवों के उत्थान-पतन को दरसाने के लिए उनके अनेक जन्मान्तरों के विवरणों को उपस्थित करना श्रमण-परम्परा की एक अंकनीय विशेषता है। इस प्रकार, ब्राह्मणपरम्परा और श्रमण-परम्परा के सैद्धान्तिक पार्थक्य-बोध की दृष्टि से भी 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं का ध्यातव्य महत्त्व है। साहित्यशास्त्रीय दृष्टि से ब्राह्मण और श्रमण-परम्पराओं की साहित्यिक कृतियों के कलापक्ष की समानान्तरता रही है। फिर भी, ब्राह्मण-परम्परा का कलोद्देश्य जहाँ अधिकांशत: प्रवृत्त्यात्मक है, वहाँ श्रमण-परम्परा का निवृत्त्यात्मक । साहित्य और कला-स्थापत्य की दृष्टि से दोनों परम्पराओं में सौन्दर्य और जीवन-सम्भोग के चित्र उपस्थित किये गये हैं। यौवनस्फीत विलासिनियाँ, वारांगनाएँ, जलविहार, आसवपान, मनोहारी वाद्य, नृत्य और नाट्याभिनय, कामरतिरसायन का उपभोग आदि जीवन के विविध मार्मिक पक्षों का चित्रण दोनों परम्पराओं में समान भाव से मिलता है, किन्तु जीवन के भोगोपभोगों और आमोद-प्रमोदों के साथ जीवन-मूल्यों की व्याख्या निबद्ध करके मानव-जीवन को प्रवृत्तिमार्ग से निवृत्तिमार्ग की ओर मोड़ने की प्रयोजन-सिद्धि ही श्रमण-परम्परा का, ब्राह्मण-परम्परा से भिन्न, मूल स्थापत्य है। और, यही अभिनव स्थापत्य संघदासगणी ने अपनी महत्कृति 'वसुदेवहिण्डी' द्वारा सम्पूर्ण कथा-साहित्य को भेंट किया है। 'वसुदेवहिण्डी' में चित्रित सामन्त, राजे-महराजे, माण्डलिक, विद्याधर, चक्रवर्ती प्रभृति सभी पात्र घोर शंगार में आमग्न दिखाये गये हैं और फिर वे ही किसी एक छोटे से निमित्त को प्राप्त कर या फिर साधु-उपदेश या जाति-स्मरण या अवधि ज्ञान हो. आने पर विरक्त हो जाते हैं, उन्हें विलास वैभवपूर्ण जीवनोपभोग नीरस-निरर्थक प्रतीत होने लगता है। फलत:, वे सांसारिक विषय-वासना को पटान्न लग्न तृण के समान त्याग देते हैं और श्रामण्य स्वीकार कर आश्रम या वन की ओर प्रस्थान करते हैं। वहाँ वे वीतरागता धारण कर देवत्व और मुक्ति के लिए सचेष्ट हो जाते हैं। पात्रों का, इस प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन कथा-साहित्य के लिए एक नवीन कथा-चेतना है। 'वसुदेवहिण्डी' में ऋषि-मुनियों के अभिशाप और वरदान, कर्म-शृंखला के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। अवसर-विशेष पर उपवन या चैत्य या नगर के बाहर किसी उद्यान में मुनिराज का पदार्पण
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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